लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


बंगाली औरत इसी परिचय के साथ जीती रहती थी, जी रही है। बहुत-से लोग परिवर्तन की बात करते हैं। तमाम गाँव उपनगर बनते जा रहे हैं, उपनगर शहर बन रहे हैं और शहर महानगर में बदलते जा रहे हैं। नगर में ऊँची-ऊँची इमारतें। स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय! अभी हाल के समय तक, जहाँ बंगाली औरतों का घर-मकान होना, लिखना-पढ़ना निषिद्ध था, वे ही आजकल स्कूल-कॉलेज पास कर रही हैं, विश्वविद्यालय की चौखट पार कर रही हैं, नौकरी-चाकरी में लगी हैं, धन उपार्जन कर रही हैं। शहर-नगर के शिक्षित इलाकों में निवास कर रहे हों तो लगता है यह परिवर्तन आकाश जितना विस्तृत है। लेकिन ऐसी औरतें गिनती में कितनी हैं जिन्हें यह सुविधा मिली है? अस्सी प्रतिशत औरतें अभी भी यह नहीं जानतीं कि लिखना-पढ़ना क्या होता है। गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले इन्सानों में अधिकांश औरतें ही हैं। औरत भुगत रही है। सिर्फ़ धर्म और पुरुषतन्त्र ही उन लोगों पर चाबुक नहीं बरसाता, दरिद्रता भी उन लोगों को रक्ताक्त कर रही है। लेकिन जो औरतें मध्यवित्त या उच्चवित्त हैं, वे लोग ही क्या सुखी हैं? असल में औरत की कोई श्रेणी नहीं होती, कोई जाति नहीं होती। वे किसी भी श्रेणी की हों, चाहे जिस भी वर्ण की हों, वे लोग निर्यातित हैं। हाँ, निर्यातन के क़ायदे भिन्न होते हैं, तरीके एक ही होते हैं।

जो औरतें लिखना-पढ़ना जानती हैं, शिक्षित हैं वे लोग ही क्या अपने अधिकारों के साथ ज़िन्दा हैं? वे लोग क्या सच में ही स्वाधीन हैं? नहीं! सच तो यह है कि औरत चाहे शिक्षित हो या अशिक्षित, वे शोषित ही हैं। शोषित इसलिए हैं क्योंकि ये औरत हैं! शोषित हैं क्योंकि धर्म, पुरुषतन्त्र संस्कृति, समाज, सभी नारी-विरोधी हैं! शिक्षित औरतें पुरुषतन्त्र के नियम-कानून जितने त्रुटिहीन तरीके से सीख सकती हैं, अशिक्षित औरतें उतनी कुशलता से नहीं सीख पातीं। शिक्षित औरतें भी पति के आदेश-निर्देश के मुताबिक़ ही चलती हैं। पति उसे अगर अनुमति न दे तो वे नौकरी नहीं कर सकतीं। इसके अलावा, जो औरतें नौकरी-चाकरी या व्यवसाय के जरिये धन कमा रही हैं, उन लोगों ने आर्थिक स्वाधीनता हासिल ज़रूर की है लेकिन आत्मनिर्भर नहीं हो पातीं। अभी भी सड़ी-गली, पुरानी संस्कृति औरतों को पुरुष के अधीन रखती है। अभी भी औरत को पर-निर्भर कर रखने की पुरुषतान्त्रिक साजिश, महज़ चुटकी बजाते ही छूमन्तर!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book