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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


संस्कृति अगर मानवता के प्रतिकूल जाये, अगर वह समता के सामने बेअदब की तरह खड़ी रहे, उसे उड़ा-पुड़ा देने के बजाय, जला कर ख़ाक कर देने के बजाय, उन्हें पाले रखने का क्या मतलब है? संस्कृति, अगर प्रवहमान नदी होने के बजाय बन्द तलैया हो, तो हम उसमें क्यों बहें-तैरें? बंगाली संस्कृति में जब तक सुधार-संस्कार नहीं होता, इसे विषमताहीन न करने तक, इस संस्कृति पर गर्व करने लायक कुछ भी नहीं है। खासतौर पर कोई औरत तो नहीं ही है।

शरीफ-सभ्य होने के लिए देश, नारी विरोधी चन्द रिवाजों को ख़त्म करने को लाचार हो गया। लेकिन अधिकांश पुरुष और नारी की मानसिकता अभी भी भयावह रूप से पुरुषतान्त्रिक है। औरत के अधिकारों के बारे में इन्सान को सचेतन करने के लिए समाज में औरत-मर्दो के बीच प्रचलित स्वामी और दासी की भूमिका बदलने की ज़बर्दस्त ज़रूरत है। शैशव से जैसे यह सबक लेना ज़रूरी है कि औरत और मर्द, दोनों के अधिकारों में कहीं कोई फर्क नहीं है। साथ ही, यह देखना भी ज़रूरी है कि समाज में औरत-मर्द के समानाधिकार की भी चर्चा होती रहे। इन्सान जितना पढ़ कर या सुन कर नहीं सीखता, उससे कहीं ज़्यादा देख कर सीखता है।

नारी की स्थिति में अगर वाक़ई ही कोई विकास हुआ होता तो आज भी लड़की देखने या दहेज का रिवाज़ टिका नहीं होता। पुत्री-सन्तान की हत्या नहीं होती, जैसा कि हो रहा है। किसी-किसी का कहना है कि औरतें अगर शोषित हो भी रही हैं तो गाँवों में हो रही हैं, शहरों में नहीं। लेकिन पश्चिम बंगाल में मादा भ्रूण-हत्या सर्वाधिक कलकत्ता शहर में ही होती है। इस शहर में सबकी नाक के ऊपर खड़े हो कर, अपनी दंतियल और अट्टहासी हँसी हँस रहे हैं-बीभत्स चकले यानी वेश्यालय! मानो मर्द जात हर पल वहाँ औरतों को कुत्सित तरीके से अपमानित करने के लिए, औरत का मान-सम्मान निश्चित करने के लिए, औरत के अधिकारों को पाँवों तले पीसने के लिए भीड़ लगाये रह सकें। औरतों की तस्करी, औरत हत्या, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार-कोई भी घटना, अब अवाक् नहीं करती। ये सब घटनाएँ गाँवों से ज़्यादा शहरों में होती हैं।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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