लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
हमारा संवाद इसके बाद और भी आगे बढ़ते हुए अन्त में 'स्वेच्छाचार' पर आ थमा। 'स्वेच्छाचार' शब्द का अर्थ, अगर अपनी मन-मर्जी से काम करना' हो (संसद बांग्ला शब्दकोश) तो मैं ज़रूर स्वेच्छाचारी हूँ। शत-प्रतिशत! आखिर यह मेरी ज़िन्दगी है। अपनी ज़िन्दगी में, मैं क्या करूँगी, क्या नहीं करूँगी यह फैसला मैं लूंगी। कोई दूसरा कौन लेगा? ज़िन्दगी जिसकी है, बस उसी की है। अपनी ज़िन्दगी में कौन, क्या करना चाहता है, इन्सान को यह खुद जानना चाहिए। जिस इन्सान में अभी तक कोई निजी इच्छा नहीं जागी उसे मैं वयस्क इन्सान नहीं कहूँगी। जो अभी तक अपनी मर्जी-मुताबिक़ नहीं चलता या चलने से डरता है, उसे मैं स्वस्थ दिमाग़ वाला इन्सान नहीं मानती।
अब सवाल यह उठता है कि अगर किसी के मन में किसी का खून करने की इच्छा सिर उठाए तब अगर किसी के मन में बलात्कार करने की चाह जाग उठे तब? मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि जो स्वेच्छाचार दूसरों का नुक़सान करे, उस स्वेच्छाचार में मेरा विश्वास नहीं है। वैसे अब इस नुक़सान में भी फेर-बदल हो सकता है। अगर कोई यह कहे, 'तुम धर्म की निन्दा नहीं कर सकती क्योंकि तुम्हारी निन्दा मेरी धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाती है-' तब?
किसी के शरीर पर आघात करने का मतलब अगर दूसरों को नुक़सान पहुँचाना होता है तो मन पर आघात करने का मतलब दूसरों को नुक़सान पहुँचाना क्यों नहीं होगा? इस मामले में मेरी राय है कि जिस इन्सान के मन में अनेक तरह के कुसंस्कार और अज्ञान घर कर गये हैं उन्हें दूर करना होगा। सजग सचेतन इन्सान की जिम्मेदारी है कि वह ये सब दूर करे। अब सवाल यह उठाया जा सकता है कि मैं अपने को सचेतन क्यों मान रही हूँ और कट्टरवादी इन्सान को सचेतन क्यों नहीं मानती? इसके पक्ष में मेरे पास सैकड़ों तर्क हैं। वैसे कट्टरवादी भी अपने-अपने तर्क पेश कर सकते हैं। लेकिन मेरी जो विचार बुद्धि है, मैंने जो मूल्यबोध गढ़े हैं उसके आधार पर मैं कट्टरपंथियों के तर्क को नितान्त अवैज्ञानिक और बेतुका कह कर उनका खण्डन करती हूँ और अपनी राय पर स्थिर रह सकती हूँ। जहाँ तक मेरा खयाल है, मैं किसी के शरीर पर आघात नहीं करती; किसी भी सच्चे, ईमानदार इन्सान के आर्थिक नुकसान की वजह नहीं बनती। अपनी स्वेच्छाचारिता को ले कर भी मझे कभी, कोई पछतावा नहीं हुआ। आज तक कभी पछताना भी नहीं पड़ा। समाज के अनगिनत 'टैबू' यानी रूढ़ियाँ मैंने तोड़ी हैं। लोगों ने इसे स्वेच्छाचार कहा, मैंने इसे अपनी आज़ादी माना। मैं अपने विवेक की नज़र में बिलकुल साफ़ और स्पष्ट हैं। मैं जो भी करती हूँ मेरी नज़र में वह अन्याय या भूल नहीं है। अपनी नज़र में ईमानदार और निरपराध बने रहने की क़द्र बहुत ज़्यादा है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
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- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
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- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
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- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं