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			 लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
 जब मैं किशोरी थी, कदम-कदम पर निषेधाज्ञा जारी थी। घर से बाहर मत जाना। खेलना-कूदना नहीं। सिनेमा-थियेटर मत जाना। छत पर मत जाना। पेड़ पर मत चढना। किसी लड़के-छोकरे की तरफ़ आँख उठा कर मत देखना। किसी से प्रेम मत करना-लेकिन, मैंने सब किया। मैंने किया, क्योंकि मेरा करने का मन हुआ।
 
 चूँकि मुझे मनाही थी इसलिए करने का मन हुआ, ऐसी बात नहीं थी। अब्बू तो मुझे और बहुत कुछ भी करने को मना करते थे। मसलन, पोखर में मत उतरना। मैं पोखर में नहीं उतरी, क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता था। इस वजह से मुझे आशंका होती थी कि तैराकी सीखे बिना, अगर मैं पोखर में उतरी, तो मज़ा तो मिट्टी होगा ही। अपनी असावधानी वश मैं डूब भी सकती हूँ। अब्बू की कड़ी हिदायत थी-छत की रेलिंग पर मत चढ़ना। मैं नहीं चढ़ी, क्यों मुझे लगता था कि रेलिंग सँकरी है अगर कहीं फिसल कर नीचे जा पड़ी तो सर्वनाश! कोई भी काम करते हुए लोगों ने क्या कहा-क्या नहीं कहा, मैंने यह कभी नहीं देखा। मैंने यह देखा कि मैंने खुद को क्या तर्क दिये। अपनी चाह या इच्छा के सामने मैं पूरी ईमानदारी से खड़ी होती हूँ। औरतों के लिए जिनकी इच्छा का मोल यह पुरुषतान्त्रिक समाज कभी नहीं देता अपनी इच्छा को प्रतिष्ठित करना आसान नहीं है। लेकिन मुझे इन्हें प्रतिष्ठित न करने की कोई वजह नज़र नहीं आती। अपना भयभीत, पराजित, नतमस्तक, हाथ जोड़े हुए यह रूप मेरी ही नज़र को बर्दाश्त नहीं होगा, मैं जानती हूँ।
 
 मेरी सारी लड़ाई सच के लिए है। मेरी जंग समानता और सुन्दरता के लिए है। यह जंग करने के लिए मुझे स्वेच्छाचारी होना ही होगा। इसके बिना यह जंग नहीं की जा सकती। व्यक्तिगत जीवन में भी सिर ऊँचा करके खड़े होने के लिए स्वेच्छाचारी बनना ही होगा। अगर मैं दूसरों की इच्छा पर चलूँ, तब तो मैं पर-निर्भर कहलाऊँगी। अगर मैं दूसरों की बुद्धि और विचार के मुताविक चली तो मैं निश्चित तौर पर मानसिक रूप से पंगु हूँ। अगर मुझे दूसरों की करुणा पर ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़े तो मैं कुछ और भले होऊँ, आत्मनिर्भर तो हरगिज़ नहीं हूँ। जहाँ स्वेच्छाचार का आनन्द न हो, मुक्त-चिन्तन न हो, मुक्त-बुद्धि न हो, तब तो मैं मशीनी यन्त्र बन जाऊँगी। इस ख़याल तक से मेरी साँस घुटने लगती है। ऐसे दुःसह जीवन से तो मौत ही भली।
 
 मर्द बिरादरी तो चिरकाल से ही स्वेच्छाचार करती आ रही है। यह समूचा समाज ही उन लोगों के अधीन है। औरत के लिए स्वेच्छाचार ज़रूरी है। इच्छाओं की कोठरी में अगर ताला जड़ देना पड़े, ताला जड़ कर इस समाज में तथाकथित भली लड़की, लक्ष्मी लड़की, ज़हीन लड़की, शरीफ़ औरत, नम्र औरत का रूप धारण करना पड़े-तो अब ज़रूरी हो आया है कि औरत अपने आँचल में बँधी हुई चाबी खोले। ताला खोल कर अपनी तमाम इच्छाएँ पंछी की तरह समूचे आसमान में उड़ा दे। हर ओर सर्वत्र औरत स्वेच्छाचारी बन जाये वर्ना आज़ादी का मतलब उन लोगों की समझ में नहीं आएगा, वर्ना वे लोग ज़िन्दगी की खूबसूरती के दर्शन नहीं कर पाएँगी।
 			
						
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 - पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
 - बंगाली पुरुष
 - नारी शरीर
 - सुन्दरी
 - मैं कान लगाये रहती हूँ
 - मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
 - बंगाली नारी : कल और आज
 - मेरे प्रेमी
 - अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
 - असभ्यता
 - मंगल कामना
 - लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
 - महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
 - असम्भव तेज और दृढ़ता
 - औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
 - एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
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 - दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
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 - इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
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 - लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
 - शांखा-सिन्दूर कथा
 - धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं
 

 
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