मुझे बेहद ख़ौफ़ होता है। हम और घोर पितृतन्त्र के कीचड़ काँद में धंसते जा रहे हैं, यह देख कर मुझे दहशत होती है। जब मैं समाज में प्रतिष्ठित, उच्च शिक्षित, विज्ञान-मानसिकता वाली, आत्मनिर्भर औरतों को अत्यन्त सजा-सज्जा में देखती हूँ, तो मेरा बटन भय से काँप उठता है। उन औरतों में आत्मविश्वास का इतना अभाव क्यों है? अगर उन लोगों में ही अभावबोध रहा तो साधारण, परनिर्भर, औरतों के लिए क्या उपाय बचेगा? हज़ारों-हज़ार वर्षों की पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ कर मुक्ति पाने की जंग औरतें कैसे कर पाएँगी, अगर उन लोगों में अपने अंग-प्रत्यंग के बारे में खुद ही इतनी शर्मिन्दगी हो। चेहरे पर रंग-रोगन चढ़ाए बिना अगर वह अपने को देखने लायक न महसूस करें तब बेड़ियाँ तोड़ना तो दूर की बात, बल्कि वे लोग अपने को और मज़बूत, अटूट बेड़ियों में खुद ही जकड़ लेंगी।
सन साठ के दशक में पश्चिम का नारीवादी आन्दोलन अपने चरम पर था।
कुत्सित पुरुषतन्त्र के गाल पर करारा तमाचा जड़ते हुए औरतों ने अपना अधिकार प्रतिष्ठित किया। रक्षणशील परुषों ने उस वक्त तो किसी तरह औरतों का यह उत्थान हज़म कर लिया, मगर अब मानो उगल रहे हैं यानी आखिरकार औरतों का उत्थान उन लोगों से हज़म नहीं हुआ। इन दिनों औरत को कठपुतली बनाने की कोशिश ही मानो उस ज़माने की सफल नारी-आन्दोलन की प्रतिक्रिया है। इन दिनों औरतों को फिर सौ साल पीछे खींच लेने की साजिश चल रही है। औरतें दोबारा बेड़ियाँ पहन लें। साज-श्रृंगार करें, सुन्दरी बनें, घर-बाहर सौन्दर्य मुकाबले की दौड़ में कमर कस कर उतर पड़ें। चारों तरफ़ औरतें जिस्म की हाट सजा कर बैठ जायें। अफ़सोस यह है कि पश्चिम का नारीवादी आन्दोलन यहाँ भारत में नहीं आया बल्कि उसका बैकलैश चला आया, औरत को भोग-सामग्री बनाने का हो-हल्ला शुरू हो गया।
हिरनी जैसी आँखें, फूलों जैसी हँसी, कजरारे मेघों जैसे बाल, नुकीले वक्ष, सुडौल बाँहें-औरतों के अंग-प्रत्यंग के बारे में लाखों-लाखों उपमाएँ और चित्रकल्पों के उपयोग ही साबित करते हैं कि ले-देकर औरत का अंग-प्रत्यंग ही सब कुछ है। लड़का डॉक्टर है या इन्जीनियर या कारोबारी या लेखक, कलाकार और नारी नाटी या लम्बी होती है, काली या गोरी सुन्दरी या असुन्दरी। आज भी पुरुष का परिचय उसके कर्म में होता है। नारी का परिचय है-वह देखने में कैसी है? वर्षों-वर्षों से यह देखती आयी हैं औरतें, फिर भी उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता? क्यों अधिकांश औरतें मर्द-औरत के विकट वैषम्य को यहाँ खुशी-खुशी मान लेती हैं? वे लोग सवाल क्यों नहीं करतीं? पलट कर जवाब क्यों नहीं देतीं-हम जैसी हैं, वैसी ही रहेंगी? हम भी बोध-बुद्धि सम्पन्न, खून-मांस की इन्सान हैं, रंगी-रंगाई कठपुतली नहीं हैं। हम असल में विश्वास करती हैं, नकल में नहीं। हमारे पेट में कितनी सी विद्या है; दिमाग़ में कितनी शिक्षा भरी है; हम कामकाज में कितनी पारदर्शी हैं; हम किस काम में कितनी दक्ष हैं-यह सब भी देखा-परखा जाये।
...Prev | Next...