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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


किसी ज़माने में सुन्दरी की संज्ञा स्थान-काल के भेद के मुताबिक़ बिलकुल अलग किस्म की थी। पहले के दिनों में औरत के बदन पर मांस चढ़ा हो, तो वह सुन्दरी और सेहतमन्द कही जाती थी। आजकल जो जितनी हाड़-हाड़ दिखे या सूरत-शक्ल से जितनी मरगिल्ली हो, जितना उपवासा चेहरा हो वह औरत उतनी ही सुन्दरी या बेहतरीन सामग्री में गिनी जायेगी। उन्नीसवीं शती की चित्रकला और मूर्तिकला में नारियों के भारी-भारी तलपेट देख कर ऐसा लगता है मानो सारी की सारी सन्तान-सम्भवा हों। उस ज़माने में पेट का मोटापा कम करने का कोई नियम नहीं बना था। आज चूँकि नियम बन चुका है, इसलिए कला-शिल्प भी बदल गया है। वैसे शिल्प भी तो आजकल काफ़ी फलता-फूलता उद्योग है। चारों तरफ़ शरीर का स्वाभाविक मोटापा और मांस घटाने की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है, खासकर तरुणी औरतों में। बहुतेरे लोगों का कहना है कि आज के ज़माने की औरतों के मुकाबले दादी-नानी वगैरह काफ़ी आजाद थीं। उन लोगों के पास जो कुछ भी था वे लोग उसी में परम निश्चिन्त रहा करती थीं। अपनी शारीरिक गढ़न के बारे में वे लोग हीनमन्यता की शिकार नहीं थीं। अपनी नाक-आँख-सूरत बदलने के लिए वे लोग किसी किस्म का दबाव भी महसूस नहीं करती थीं। हाँ, पिछले ज़माने में जैसी-तैसी दासी होने से ही चलता था। अब सुन्दरी दासी चाहिए। पुरुषों का चाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और बाज़ार योजना में माँग के मुताबिक नारी-सामग्री तैयार करने का इन्तज़ाम भी जोरदार होता जा रहा है। शक्तिशाली मीडिया और मार्केट ने सुन्दरी औरतों का मॉडल या नमूना भी दिखा दिया है। अब, इस जाल में औरतें दनादन फँसती जा रही हैं। सुन्दरी और असुन्दरी, दोनों तरह की औरत जात पर स्वाभाविक तौर पर जानलेवा दबाव पड़ रहा है। असुन्दर को सुन्दर बनना होगा, सुन्दर को सुन्दर बनी रहना होगा। इस दबाव तले उन औरतों का दिमाग जितना भोथरा नहीं है उससे और ज़्यादा भोथरा होता जा रहा है। औरतें अपने अन्दर की तमाम सम्भावनाओं का गला दबोच कर अपने को वेश्या में परिणत करती जा रही हैं। वेश्यालयों में अभद्र वेश्याएँ निवास करती हैं और वेश्यालय के बाहर भद्र वेश्याएँ। दोनों का ही काम है पुरुषों को मुग्ध करना; उनका मनोरंजन करना और बेभाव सुख देना।

इस सड़े-गले, पुराने-धुराने पिछड़े समाज में शारीरिक सौन्दर्य ही औरत का प्रमुख सम्पद है। सम्पदहीन औरतों का जीवन सड़क के कुत्तों, बिल्लियों जैसा है। असहनीय! कष्टकर! भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप पश्चिमी देशों की सुन्दरियों की संज्ञा, हर ओर फैल गयी है। समझदार जनता इस संज्ञा को अन्तस्थ कर रही है। चीन-जापान की औरतें भी अब अपने नयन बड़े करना चाहती हैं, नाक सुतवां बनाना चाहती हैं। अगर उनका बस चले तो वे अपनी कद-काठी बदल दें, डी एन ए का निशाना दूसरी ओर घुमा दें। पश्चिमी देशों के पुरुष औरत की टाँगें देख कर पुलकित होते हैं। वैसे टाँगों के बारे में भारत कभी नहीं पगलाया। लेकिन अब भूमण्डलीकरण के कारण पश्चिम की टाँगें पूरब में भी आ पहुँची हैं। अब यहाँ की लड़कियाँ औरतें भी टाँगें दिखा-दिखा कर चलने को मजबूर हो गयी हैं। पैंट या स्कर्ट ढलक कर नितम्ब छने लगे हैं। भरे-भरे गालों की खूबसूरती अब पिचके गालों में बदल गयी है। सामग्रियों का अब आधुनिकीकरण हो रहा है। साथ ही, नारी नामक सामग्री पर नये ज़माने की हवा लग चुकी है। दक्षिणी हवा के बजाय पश्चिम की हवा।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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