लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
सच तो यह है कि पुरुषतान्त्रिक समाज में औरत महज 'सामग्री' है। मर्दो के भोग की सामग्री। अब यह बात कोई माने या न माने, यही सच है। ठीक जैसा रूप देख कर, पुरुषों में उत्तेजना जागती है, नारी नामक 'वस्तु' को वैसी ही बनना पड़ता है, जैसी दिखने से, पुरुष के तन-मन को चैन और आराम मिले। जन्म से ले कर मृत्यु तक औरत को जितना सजना-धजना पड़ता है, जो-जो काम करने पड़ते हैं, वह सब पुरुष और पुरुषतान्त्रिक समाज की स्वार्थ-रक्षा के लिए! औरत का सतीत्व, मातृत्व, उसका नत और नम्र चरित्र-रक्षा, सबकुछ पुरुष के स्वार्थ के लिए ताकि पुरुष औरत को अपनी अधिकृत सम्पत्ति और क्रीतदासी के तौर पर उससे खूबसूरत बर्ताव कर सके। औरत को अपनी कांख तले दबोचने के सैकड़ों तरीके प्रचलित हैं। सबसे आधुनिक तरीके का नाम है-प्यार! प्यार, औरत को, यहाँ तक कि ताकतवर औरतों को भी इस कदर कमजोर बना देता है, इस हद तक पिघला देता है कि उसके लिए पुरुष द्वारा खाये-चबाये-चसने-चाटने की सामग्री बन जाने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा रहता। घर-गृहस्थी के मंच पर बीवी की भूमिका निभाने से पहले प्रेमिका बनने का दौर चलता है। इस दौर में औरत अगर अपने प्रेमी-पुरुष के प्रति त्याग और तितिक्षा के मामले में दक्षता का परिचय दे सके, तो वह पार हो जाती है।
सुन्दरी! यह विशेषण और धारणा, पुरुषतन्त्र में विश्वासी पुरुष और नारी, दोनों के ही द्वारा तैयार की गयी है। वे लोग ही यह तय करते हैं कि कैसी देहयष्टि वाली औरत को सुन्दरी कहा जायेगा। प्रचार और पण्य सामग्रियों का कारोबार इन लोगों की दखल में होता है। प्रचार किया जाता है कि अमुक शरीर सुन्दर है, तत्काल उस शरीर मुताबिक छाती-कमर-पेट-जाँघ-नितम्ब सृजन की तैयारी शुरू हो जाती है। सामग्रियाँ बाजार में छा जाती हैं। औरतों का झुंड भी तत्काल उन सामग्रियों पर टूट पड़ता है। या उन लोगों को धकेल कर, उन सामग्रियों की ओर लालायित किया जाता है। बस औरत को खूबसूरत होना ही होगा अगर वह खूबसूरत नहीं बन पायी, तो इस समाज में उसका कोई मोल नहीं है। अगर वह सुन्दरी नहीं बनी, तो उसका कोई मित्र, कोई बन्धु-बान्धव नहीं होगा, उससे कोई प्यार नहीं करेगा, अच्छी-सी शादी भी नहीं होगी, कोई अच्छी नौकरी भी नहीं मिलेगी। उसके कामकाज का सुफल नहीं मिलेगा, उसे बिरादरी से बाहर पड़े रहना होगा। इसलिए 'औरत' सामग्री बनने के लिए अपनी जान लड़ा देती है, ताकि वह अच्छे दामों में बिक सके, ताकि उसकी देहयष्टि के प्रति लोग-बाग़ विस्मय-विमुग्ध हो उठे। बाज़ार की माँग मुताबिक अपने को प्रस्तुत करना औरत अचानक नहीं सीखती। यह हुनर वह जन्म से ही सीखने लगती है। वह अपने आत्मीय स्वजनों से सीखती है, घर से बाहर क़दम रखते ही सीखने लगती है। इसके अलावा वह रेडियो-टेलीविजन से, पत्र-पत्रिकाओं से सीखती है। महिला पत्रिकाएँ पढ़-पढ़कर और ज्यादा सीखती है। इस किस्म की तालीम उसके दिमाग के रन्ध्र-रन्ध्र में पैठ जाती है। नतीजा यह होता है कि औरत के अधिकार के मामले में ज्ञान, बुद्धि धारण करने की क्षमता पुरुष के मुकाबले औरतों में कम होती है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं