जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल कोई मुझे लेस्बियन समझे या न समझे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन सौहार्द, स्नेह, प्यार, अगर छूकर जाहिर न किया जाए तो कैसे किया जाए? आमने-सामने बैठकर, स्पर्शहीन बातचीत करके? स्पर्श के साथ सिर्फ मैथुन का रिश्ता ही क्यों जोड़ा जाता है, स्नेह-श्रद्धा या माया-ममता का स्पर्श नहीं हो सकता? ऐसा अहसास लेकर दूर-दूर बैठी रहूँ? समूची रात एक ही बिस्तर पर लेटे-लेटे गप-शप नहीं किया जा सकता? चाँद देखते-देखते बतकही नहीं की जा सकती? उस रात, जहाज के उस कमरे से आसमान में सचमुच का पूनो का चाँद निहारते-निहारते ही, मैं और माइब्रिट गप्पवाजी करते रहे। बिस्तर के साथ क्या सिर्फ रति-क्रिया का ही रिश्ता होता है? दो दोस्त या दो सहेलियाँ अगर समूची रात गप-शप करें तो क्या यह मामूली बात है?
माइब्रिट को मैं अपने बिस्तर पर खींच लाई, इसे मेरी संस्कृति मानकर उसने भले ही कबूल कर लिया हो, लेकिन उसके मन में भी कहीं, कोई झिझक ज़रूर काम कर रही थी। गोथेनबर्ग के होटल में भी मैं देख चुकी हूँ कि वह सिर्फ करवटें बदलती रही थी। चूँकि वह समलैंगिक यानी लेस्वियन नहीं है, इसलिए या तो वह अकेली सोती है या किसी मर्द के साथ सोती है। किसी लड़की या औरत के साथ सोना नहीं चलेगा। मैं पूरब और पश्चिम की संस्कृति के बीच मं विमूढ़-सी खड़ी रही। पश्चिम की आज़ादी और अधिकार-बोध मुझे मुग्ध करता है, लेकिन साथ ही पूरब के स्पर्श के लिए, पूरब की अश्रुपूरित आँखों के लिए, मैं तीखा खिंचाव महसूस करती हूँ। इस ओर बुद्धि, उस ओर आवेग! में इनमें से किसी को भी नहीं छोड़ सकती। लेकिन बुद्धि के साथ मैं चतुराई का मेल हरगिज नहीं चाहती और आवेग में वनावटीपन भी नहीं चाहती।
सजी-सजाई मेज पर खाना आ पहुँचा! लजीज व्यंजन! खाने-पीने के बाद माइब्रिट के प्रस्ताव पर हम डिस्को देखने गए। आज से पहले मैंने कभी डिस्को-नाच नहीं देखा था। कानों के पर्दे फाड़ देने वाले गानों का शोर! उसी माहौल में लोग शराब पी रहे हैं, नाच रहे हैं। माइब्रिट मुझे नाचने के लिए खींच ले चली, लेकिन मुझे नाचना नहीं आता था। मारे शर्म के मैं एक कोने में बैठी रही और वहीं से लोगों का हो-हुल्लड़ और उल्लास देखती रही। वहाँ तरुणाई मानो फटी पड़ रही थी। जिस किशोर उम्र में मुझे अपने घर से एक कदम बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी, उसी उम्र की लड़कियाँ अपने दोस्त-सहेलियों के साथ यहाँ घूमती फिर रही हैं, अपनी मनमानी कर रही हैं और चरम सुख में मस्त हो रही हैं। डिस्को में बैठे रहने के दौरान ही वहुत-से लोग मुझे अभिनंदन ज्ञापित करने आए। बहुत-से लोग मेरा ऑटोग्राफ लेने आए। असल में, अखबारों और टेलीविजन में मुझे इतनी बार दिखाया जा रहा है कि लोग मुझे देखते ही पहचान जाते हैं। मेरे साथ पुलिस देखकर, तो उनका भरोसा और पक्का हो जाता है। हालाँकि पुलिस ज्यादातर सादी पोशाक में होती है, लेकिन अनुभवी आँखें, चारों तरफ चौकन्नी निगाहों से देखते हुए और उन लोगों की चुस्त-दुरुस्त सेहत देखते ही, ढीली-ढाली जैकेट पहने होने के बावजूद पुलिस को भी पहचान लेती हैं।
"यह नाच-गान-फुर्ती कब तक चलेगी?" मैंने पूछा।
"रात-भर!" माइब्रिट ने जवाब दिया।
"रात-भर?"
माइब्रिट ने सहमति में सिर हिलाया। मैं नाच की तरफ़ नज़रें गडाए बैठी रही मगर उसका कोई सिर-पैर समझ में नहीं आया। नाच के बारे में मझे सिर्फ इतना पता था कि हर नाच में सुर-ताल-छंद का एक नियम होता है। मैं कत्थक, मणिपुरी, भारतनाट्यम, लोक-नृत्य देखने की अभ्यस्त थी, लेकिन यह नियमहीन नाच, बंधनहीन ग्रंथि! वहाँ बैठे-बैठे ही मैंने नाच के बारे में बहुत सारी जानकारियाँ ली। बॉलरूम नाच, वाल्ट्ज, विएनीज़ वाल्ट्ज, ट्विस्ट, टैंगो, फॉक्सट्रट, चा-चा, साम्बा, राम्बा, मम्बो, साल्सा, मेरेंगो, फ्लामेस्को, पॅल्का, बैले, बैली वगैरह-वगैरह! असल में, हर देश के, हर अंचल में एक-एक नाच प्रचलित होता है, लेकिन हर नाच का थोड़ा-बहत नियम होता है, लेकिन इस डिस्को नाच का कोई नियम-कानून नहीं होता। जिसका जो मन हो, वह करता रहता है। बस, हाथ-पैर हिलाना होता है। ताल भले ही ठीक रहे या न रहे, लेकिन देह हिलाने-मटकाने का कोई माँ-बाप नहीं होता। डिस्को का आयात सन् सत्तर के दशक के शुरू में हुआ था। यह शब्द फ्रेंच शब्द डिस्कोटेक से लिया गया है। डिस्को का डिस्क और लाइब्रेरी यानी फ्रेंच भाषा की बिब्लिओटेक का टेक! इन दोनों को मिलाकर डिस्कोटेक! डिस्कोटेक एक नाइट क्लव था। पेरिस के डिस्कोटेक में हार्लेम रेनसाँ के वही सब जैज़ रिकॉर्ड बजाए जाते थे, जबकि दूसरे महायुद्ध के समय, चूँकि यह काले लोगों का डिस्कोटेक था इसलिए नाजी फौज ने जैज़ को निषिद्ध कर दिया था।
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