जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
फिनलैंड और स्वीडन के बीच अ-लंद नामक छोटा-सा द्वीप बसा है। यह द्वीप फिनलैंड का है, लेकिन यहाँ एक किस्म का स्वायत्त शासन चलता है। जहाज इस द्वीप में कुछ ही देर के लिए ठहरता है और तमाम नौजवान औरत-मर्द उतावले होकर नीचे उतर आते हैं और क्रेट-क्रेट बीयर खरीदते हैं। जहाज कस्टम्स पार करके स्वीडन में दाखिल हो जाता है। इस वजह से कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। स्वीडन के हाई-टैक्स की वजह से हर चीज़ की तरह ही शराब की कीमत भी बहुत ज्यादा है। जैसे बिना पैसे के गुड़ पर चींटियों का ढेर लग जाता है, विल्कुल उसी तरह कम पैसों में बीयर मिल रही हो तो लोगों की भीड़ जुट जाती है।
अब भीड़ चाहे जितनी भी हो, जहाज से सबसे पहले मुझे उतारा गया। जब तक मैं जहाज से बाहर नहीं आयी, बाकी लोगों के निकलने पर रोक लगा दी गई। बंदरगाह पर मेरा इंतज़ार करती हुई स्वीडिश सुरक्षा फौज, जब तक मुझे लेकर अदृश्य नहीं हो गई, तब तक जहाज में रुके हुए औरत-मर्द, बूढ़े-बूढ़ी मुसाफिरों को इंतज़ार करना पड़ा। इतनी-इतनी सुविधा देकर ये लोग मुझे कहाँ ले जा रहे हैं? पूरे एक सौ द्वीप पर गढ़ा गया स्टॉकहोम शहर के लिडिंगो नामक द्वीप में! वैसे वह कोई द्वीप है, यह समझने का कोई उपाय नहीं है। पूरे-के-पूरे सौ द्वीप पुलों के जरिए आपस में जुड़े हुए! अब तीन पुलिस वाले मुझे लेकर लिडिंगो की नौ-मंजिली इमारत में दाखिल होंगे। एक पुलिस वाला नीचे खड़ा रहेगा, जो गाड़ी ड्राइव कर रहा था। इस देश में गाड़ी लोग खुद ही चलाते हैं। मेरे घर का ताला कौन खोलेगा? वे लोग ही खोलेंगे। घर की चाबी, उन लोगों के पास भी रहती है। मुझे अंदर करके वे लोग फिर दरवाजे का ताला बंद करेंगे और चले जाएँगे। वैसे घर के अंदर से भी मैं वह ताला खोल सकती हूँ। खैर, खोल तो सकती हूँ, मगर खोलने का कोई नियम नहीं है। घर से एक पाँव भी बाहर निकालना मेरे लिए निषिद्ध है। मुझे अगर कहीं बाहर निकलना हो तो मुझे पुलिस के नंबर पर फोन करना होगा। पुलिस फौरन हाजिर हो जाएगी और जहाँ मैं जाना चाहूँ, वे लोग मुझे ले जाएँगे। मुझे कब, कहाँ, किस वक्त जाना है, यह कुछ दिनों पहले ही सूचित कर देना पड़ता है। वैसे इमरजेंसी के लिए भी वे लोग तैयार रहते हैं।
वैसे मुझे कहीं जाना कहाँ होता है? मेरे लिए तो जाने की कोई जगह नहीं है! कोई भी तो मुझे अपने घर नहीं बुलाता। मैं तो किसी के घर जाकर उसका दरवाज़ा भी नहीं खटखटा सकती। यहाँ ऐसा नियम नहीं है। मैं भला किसके घर जाऊँ? किससे बातें करूँ? बस अकेले-अकेले अपने घर में पड़ी रहती हूँ। दिन-दिन भर। रात-रात भर! पढ़ने के लिए कोई किताव तक नहीं। लिखने के लिए दिमाग में कोई शब्द तक नहीं। मैं टेलीविजन खोलकर वैठ जाती हूँ। सारे चैनल स्वीडिश भाषा में स्क्रीन पर बातें हो रही हैं, लेकिन उनका एक शब्द भी मेरे पल्ले नहीं पड़ता। वस, वुद्धओं की तरह तस्वीर पर नज़रें गड़ाए रहती हूँ। रिमोट कंट्रोल के एक के बाद एक बटन लगातार दवाती रहती हूँ। हालाँकि मैं जानती हूँ कि इनमें से कोई भी चैनल मेरी पहचान का नहीं होगा। इनमें से किसी भी चैनल की वह भाषा नहीं होगी, जिसे मैं समझ सकूँ। भारतीय उपमहादेशों में अपनी निजी भाषा के अलावा टेलीविजन, रेडियो पर कम-से-कम अंग्रेजी में खबरें तो प्रसारित की जाती हैं। यहाँ ऐसा नहीं होता। इस देश में तो कोई अंग्रेजी अखबार तक प्रकाशित नहीं होता। अब तक पश्चिम में जितनी भी जातियाँ देखीं, कोई भी जब अपनी भाषा में वात करता है तो अंग्रेजी का एक शब्द भी इस्तेमाल नहीं करता। वातचीत के दौरान अंग्रेजी का कोई जुमला जुबान से फिसल जाए? सवाल ही नहीं उठता।
फ्रिज में सात दिनों पहले पकाई हुई भात-सब्जी! फ्रिज से वह खाना निकालकर मैं प्लेट में डालती हूँ और सानती रहती हूँ। देर-देर तक सानती रहती हूँ। भूख बिल्कुल नहीं है, फिर भी खाती हूँ! कुछ देर बाद बरामदे में आ खड़ी होती हूँ। सर्दी नुकीली सूई की तरह तन-बदन में चुभ जाती है। चारों तरफ अँधेरा-ही-अँधेरा। अँधेरा मुझे सर से पाँव तक ढंक लेता है। जब कमरे की रोशनी और गुनगुने माहौल में लौटती हूँ, वेहद तीखा, अंदर तक छेद जाने वाला अकेलापन, मेरे तन-बदन पर अपने भयावह दाँत गड़ा देता है। हर पल लोग...लोग और लोग! और लोगों की भीड़ से अचानक समाज से बहिष्कृत, खारिज-सी अकेलेपन में डूबी हुई। भयंकर बीभत्स है यह अकेलापन। मैं कहीं भी, इतनी अकेली कभी नहीं हुई! वहाँ घर में कोई-न-कोई तो होता ही था। अगले ही पल आईने के सामने जाकर खड़े होने का ख़याल आता है। कम-से-कम अपना प्रतिबिंब देखकर ही दो लोगों के होने का अहसास तो होगा। इतने-इतने इंसानों की भीड़ में होते हुए भी इंसानों के लिए इतनी छटपटाहट क्यों है? असल में इंसानों की भीड़ में होते हुए भी मैं शायद अकेली ही होती हूँ। भीड़ से निकलकर अकेले कमरे में सिर्फ अपना अर्थहीन, मूल्यहीन जीवन के आमने-सामने खड़े-खड़े मैं खौफ और नफरत से काँपती रहती हूँ। हताशा मुझे सिर से पाँव तक ढके रखती है।
फ्रांस में मुझे घेरे रही, बारह सौ पुलिस,
बिछाई लाल कालीन राज्यपालों ने;
भर उठा था शहर करोड़ों दर्शकों से,
खड़े थे राजा-मंत्री महोत्सव की भीड़ में।
भर उठा था कमरा फूल, उपहारों से,
कौन मुझे पहले थमाएगा तमगा?
छिड़ी थी जंग लोगों में,
बीच फँसी मैं! करता रहा नेस्तनाबूद बोझिल अभिनंदन!
राजा-मंत्री के बीच खड़ी-खड़ी अकेली,
फ्रांसीसी कोई औरत, कातर आँखों से
कहती रही-तुम नहीं हो अकेली! मैं हूँ ना!
दिल चाहे मुड़-मुड़कर, बार-बार उसको ही देखना!
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