जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इस बार जहाज से हवाई अड्डे पर ही उतरी! हवाई अड्डे में फोटो पत्रकारों की भीड़! सैकड़ों कैमरे! सुरक्षा-घेरे के दायरे में कोई मुझे छू नहीं सकता था। माइक्रोफोन को ऊँचाई से बढ़ाकर कोई-कोई सवाल पूछकर भी काम नहीं चला। टेलीविजन की खबरा का पहला हेडलाइन-म फिनलड आई हूँ। होटल में दाखिल होत वक्त, होटल से निकलते वक्त, पापारात्जी का दल पीछा करने लगा। मैं जिधर भी जाऊँ, जिस ओर भी चलूँ, कहीं छुटकारा नहीं था। पहले से ही संपर्क करके तुर्की से एक नौजवान आ पहुँचा! उसने अपना नाम बताया-बरकत! मैंने अनगिनत सुदर्शन मर्द देखे हैं। लेकिन इससे पहले इतना गजब का सुदर्शन मर्द नहीं देखा था। असल में बरकत
नाम मुझे बेहद जाना-पहचाना लगा। वरकत की इतनी अश्वेत देह, अनजाने में ही, मुझे इस ख़याल से भर गई कि वह मेरा वेहद अपना है। उस नौजवान का स्पर्श पाने के लिए, मेरे मन में तीखी चाह जाग उठी। मेरा मन हो आया कि उस नौजवान का हाथ थामे-थामे, पूरे शहर का चक्कर लगाऊँ। मेरा जी चाहा, वह मुझे प्यार करे, मुझे चूम ले। मेरी आँखों की प्यास की उस नौजवान को खबर नहीं हुई।
उसने पूछा, “आप क्या पंद्रह मिनट, मुझे दे सकेंगी?''
“आप इतनी दूर से आए हैं, कुल पंद्रह मिनट ही क्यों माँग रहे हैं? जितना चाहे, समय लीजिए।"
वह नौजवान तब तक कैमरा विठाकर, रोशनी नापकर मेरे लिए कुर्सी तैयार रखकर इंतजार कर रहा था। वह मन-ही-मन बौखलाया भी हुआ था। मुमकिन है, मैं उसे पाँच मिनट से ज्यादा वक्त नहीं दूंगी।
तुर्की के चंद अखबार मुझे थमाते हुए उसने कहा, “तुर्की में आपके बारे में वहत कर लिखा जा रहा है। वहाँ के सभी लोग आपके बारे में जानते हैं।"
उम्मीद से ज्यादा पाकर वह नौजवान पुलक उठा। उस नौजवान के लिए मैं महज एक तारिका थी। इससे ज्यादा और कुछ नहीं। मेरी नज़रों की प्यास वह नहीं समझ पाया। मैं समझ गई, किसी दिन वह समझ भी नहीं पाएगा। उसने पंद्रह मिनट का वक्त माँगा था, लेकिन मैं पूरे घंटे-भर तक उससे बातें करती रही। उसके सवालों का जवाब देती रही। वह नौजवान उत्तेजित हो उठा था। अब तो टेलीविजन में सिर्फ खबर ही नहीं बनेगी, अच्छी-सी डॉक्यूमेंटरी भी तैयार हो जाएगी। अब उसका नाम मशहूर हो जाएगा।
तुर्की के बारे में मैंने अपना आवेग जताया।
"तुम्हारे कमाल अतातुर्क के प्रति मेरे मन में काफी श्रद्धा है। किसी दिन मैं तम्हारे अतातुर्क का देश देखने जरूर आऊँगी।"
अगले ही पल बरकत का चेहरा गंभीर हो उठा।
“अतातुर्क बेहद बुरे आदमी थे।"
"तुम बकवास कर रहे हो। अतातुर्क बुरे इंसान क्यों होने लगे? उन्होंने तुर्की को सैकुलर बनाया था। आज मुस्लिम देशों में तुर्की ही सर्वाधिक सैकुलर है। अगर कमाल अतातुर्क न होते, तो भला यह संभव होता? बाकी मुस्लिम देशों को देख नहीं रहे हो, कट्टरवादियों के नुकीले दाँत लोगों को खा-चबा रहे हैं?"
बरकत और ज्यादा गंभीर हो उठा, “कमाल अतातुर्क एक खूनी इंसान थे। उन्होंने अनगिनत इंसानों की हत्या की है। जो भी उन्हें कट्टरवादी लगता था। वे उसे उठाकर समुंदर में फेंक देते थे।"
"अच्छा? तुम क्या घोर धार्मिक इंसान हो?"
"नहीं, बिल्कुल भी नहीं! मैं नास्तिक हूँ। मैं मानववादी हूँ।"
मेरा सिर चकराने लगा। कहीं मेरे हिसाब में कोई गड़बड़ हो गई है। गड़बड़ी कहाँ है? मैं सोचती रही। मानवतावाद की पहली शर्त है-नास्तिकता! लेकिन नास्तिकता ही शायद एकमात्र शर्त नहीं है। मेरे ख़यालों में तुर्की के कमाल और उनके कार्यों में अजब गुत्थी पड़ गई। वरकत ने जो वताया, वह पूरा-का-पूरा सच है, यह मैं नहीं मानती। धीरे-धीरे व्यक्ति गायब हो जाता है, आदर्श पड़ा रहता है, उसकी भूल-भ्रांतियाँ पड़ी रहती हैं। उसकी भलमनसाहत, विराटता पड़ी रहती हैं। उनमें से क्या चुनें, क्या खारिज कर दें, कौन-सा कबूल करें, कौन-सा पानी में बहा दें, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या चाहते हैं, क्या नहीं चाहते, लेकिन ऐसा भी तो होता है कि हम किसी की भी उपेक्षा नहीं करते।
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