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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


प्राग की सड़कों पर चलते-चलते मैंने पुलिस वालों से ही दरयाफ्त किया, "कौन-सा समय भला था? कम्युनिज्म का समय या आज का समय?"

किसी ने जवाब दिया, “आज का समय!"

उसने अन्य सहकर्मी से मेरे सवाल का अनुवाद किया। उसने भी सिर हिलाकर कहा, "बेशक, आज का समय!"

"क्यों, पहले का जमाना क्या बुरा था?" मैंने सवाल किया।

"उस जमाने में हमें आजादी नहीं थीं।" लगभग समवेत जवाब मिला।

"किस बात की आज़ादी नहीं थी?"

"देश के बाहर कहीं जाने की आज़ादी नहीं थी।"

“अब क्या देश से बाहर जाते हो?"

“मतलब?".

“अब तो कम्युनिज्म नहीं रहा। अब तो देश से बाहर जाकर घूमने-फिरने की आज़ादी है! है या नहीं?"

"हाँ, आजादी तो है।"

"तो अब जाते हो? देश के बाहर निकलते हो? घूमते-फिरते हो?"

"ना।" पाँच पुलिस वालों ने एक साथ सिर हिलाया।

"कोई भी देश से बाहर घूमने-फिरने नहीं जाता।"
"क्यों?" मैंने सवाल किया।

सबने बारी-बारी से यही जवाव दिया कि अब भी कोई बाहर नहीं जाता क्योंकि जाने के लिए किसी के पास भी उतने रुपए नहीं हैं।

परदेस अपने स्नेहिल बर्फ में,
ढके रखता है घमौरियाँ-भरी मेरी पीठ,
फिर भी निकल आती है एक वेअदव बंगाली,
बर्फ की परत तोड़कर,
लहक उठती है लपलपाती आग के मानिन्द,
समूचे दूधिया मैदान में!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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