जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
लेखकों में से ही किसी ने मुझे बताया, “ये औरतें प्रॉस्टिट्यूट हैं! वेश्याएँ!"
मैं एकदम से बौखला उठी।
हाँ, यही हुआ है। समाजतंत्र को धकियाकर पूर्वी यूरोप में वेश्यातंत्र घुस आया है।
तभी किसी ने मेरे कानों में फुसफुसाकर कहा, “किसने कहा, कम्युनिस्ट जमाने में वेश्यावृत्ति नहीं थी? खूब थी!"
"कम-से-कम खाना-पहनना तो था।"
“खाना-पहनना ही क्या जिंदगी में सब-कुछ होता है? साध-आह्लाद, शौक-खुशी नहीं होनी चाहिए?"
"कैसा साध-आह्लाद?"
“अपनी इच्छा के मुताबिक करने या चलने का आह्लाद!"
जिस विप्लव के जरिए इस देश से समाजतंत्र विदा हुआ, उसका नाम है मखमली विप्लव! सन् उन्नीस सौ निन्यानवे के नवंबर में यह विप्लव हुआ। नवंबर महीने की नौ तारीख को दोनों जर्मनी के बीच खड़ी बर्लिन की दीवार ढह गई। यहाँ भी लाखों लोगों ने जुलूस निकाले, सभाएं की। नवंबर को अट्ठाईस तारीख को कम्युनिस्ट लोगों ने घोपित तौर पर गद्दी छोड़ दी। किसी खून-खराव की जरूरत नहीं पड़ी।
मैं पुराने प्राग और नए प्राग की सैर करती रही। यहाँ सैलानी जो देखने आते हैं, मैंने उस नजर से नहीं देखा। मेरी नजर आम राहगीर, महल्लों की छोटी-छोटी दुकनियाँ, नुक्कड़ पर स्थित कैफों में भीड़भाड़, वस-ट्रामों में बैठे मुसाफिरों की भंगिमाएँ, पहनावे, वातचीत की मुद्राएँ, आँखें, घर-मकानों की खिड़कियाँ, गाड़ी-वरामदों में खड़े लोगों को देखती-परखती रहीं। झुंड-भर लोग गिरजाघर की ओर जाते-आते हुए! सूरत और आँखों में बनावटी उल्लास! मैं सारा कुछ उड़ती-उड़ती नज़र से देखती रही। वहाँ के जीर्ण घर-मकान-कोठियों पर भी नज़र पड़ी। दुनिया के प्राचीनतम प्रासादों में प्राग का राजप्रासाद ही सबसे बड़ा है। नौवीं शताब्दी में इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ था। पंद्रहवीं शताब्दी में पाउडर टॉवर बनकर तैयार हो गया। वहाँ मैंने चंद गिरजाघर भी देखे। किसी जमाने में मंदिर, मस्जिद, गिरजा देखने की मैं घोर-विरोधी थी, लेकिन यहाँ की स्थापत्य कला देखने के लिए मैं वहाँ गई। विभिन्न शतकों में तैयार किए गए गिरजाघरों के अंदर-बाहर का स्थापत्य, हमें सिर्फ कला का नमूना ही नहीं दिखाता, इतिहास भी पढ़ाता है।
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