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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मैं वाल्टर को लेकर बाहर निकल पड़ी। मैंने छोटी-छोटी चीजें खरीदीं, छोटे-छोटे स्मृति-चिह्न! चेकोस्लोवाकिया की बिल्कुल निजी चीजें! मैंने चॉकलेट रंग की एक हैट भी खरीद ली। जिंदगी में पहली हैट! वाल्टर ने काफी महँगी-सी गारलैंड की माला खरीदी! शायद अपनी प्रेमिका के लिए! मुझे तो उपहार देने का जुनून है! अपने खरीदे हुए उपहारों में से झट से उसे भी एक उपहार दे डाला। वह अचकचा गया, "अरे नहीं! मुझे क्यों दे रही हो?"। लेकिन मैंने उसे इसलिए दिया, क्योंकि यह पूर्व की संस्कृति है, जो कुछ-कुछ मेरी है। सभी गोरे लोगों में वाल्टर मोसली पर खास निगाह पड़ने की वजह यह थी, क्योंकि उसका रंग मेरी तरह बादामी है। बादामी लोग अनजाने में ही मुझे अपने वेहद करीव लगते हैं। वाल्टर के पिता काले कैरेवियन थे और माँ गोरी यहूदी! एक के साथ अंचल का नाम, दूसरे के साथ उसकं धर्म का नाम जुड़ा था। यहूदी का परिचय देते हुए जाति, धर्म, अंचल, संस्कृति--सारा कुछ एक ही शब्द में समझाना पड़ता है।

मैं और वाल्टर चार्ल्स सेतु पर टहलते रहे ! विशाल और विख्यात घड़ी के घण्टे सुनते रहे। यूरोप के बहुतेरे देशों में यही प्रचलन है! शहर के बीचोंबीच किसी प्रासाद जैसी इमारत के सामने एक विशाल घड़ी में से हर घंटे, चिड़िया या किस्म-किस्म की कटपुतलियाँ या गड्डे निकल आते हैं। यह दृश्य देखने के लिए घड़ी का काँटा, घंटे के खाने तक पहुँचने से पहले ही लांग सामने आकर खड़े हो जाते हैं।

मेरी निगाहं पश्चिमी यूरोप देख चुकी हैं। इससे पहले, मैंने समाजतांत्रिक देश नहीं देखा था। चंक रिपब्लिक भी अव समाजतांत्रिक देश नहीं रहा, लेकिन अभी वहुत दिन नहीं गुजरे, जब इस देश से समाजतंत्र विदा हुआ। कम-से-कम उसकी गंध तो अभी भी कायम है। पश्चिम और पूरव का फर्क साफ जाहिर है, इससे इंकार करने का कोई उपाय नहीं है। दरिद्रता के निशान भी मिलते हैं, लेकिन पाँच सितारा होटल, ऑट्रियम में इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। मुझे वहाँ से निकल आन पड़ा । वसे बाहर निकल आन की आर भी वजह थी। उन कई सौ लेखका के वाच पुलिस ऑट्रियम होटल में राइफल लिए-लिए और हाथ में वोभर व्रीफकेस लिए, मेरे पीछ-पीछे चल रही थी। में नहीं चाहती थी कि यह दृश्य कोई देखे! अपने लिए इस विकट सुरक्षा इंतजाम की वजह से मैं किसी से दिल खोलकर मिल-भेंट भी नहीं पाती।

मैंन मेरिडिथ से भी कहा, “देखो, यह सव सर्कस वंद करने का कोई इंतज़ाम करो न!"

ना, चेक पेन से कहने के वावजूद इसे बंद नहीं किया जा सका। चेक पेन न साफ-साफ कह दिया है कि यह इंतजाम सरकार की तरफ से किया गया है। सरकार इस सुरक्षा में कोई हेर-फेर नहीं करेगी। हर पल वदन से लगभग सटे हुए सुदर्शन मर्द, लेकिन उनमें कोई लेखक या कवि नहीं था। सव-के-सव पुलिस वाले थे। रात के वक्त वगल के कमरे में उनके रहने का इंतजाम! कभी-कभी मेरे मन में यह खयाल भी जाग उठता है कि खामखाह वहाँ बैठे रहने से तो बेहतर है कि कोई खूबसूरत नौजवान मेरे कमरे में घुस आए और मुझसे प्यार-मुहब्बत करे तो सचमुच काम जैसा काम होता। बीच-बीच में सिर चकरा देने वाले सुदर्शन मर्दो को देखकर, मेरा भी मन नहीं करता कि उन्हें छूकर देखू, उनके साथ सोकर देखू, ऐसी बात भी नहीं है। मेरा भी जी चाहता है! बेहद तीखी चाह जागती है!

यहाँ के लोग अंग्रेजी खास नहीं जानते। पुलिस वालों में भी, जो अंग्रेजी जानता है, बस, उसी से बातचीत होती है।
में पुलिस वाले से कहती हूँ, “किस जगह जाना बेहतर होगा, बताओ तो? कहीं आस-पास मुझे ले चलो न!"

बस, वात जुबान से निकली नहीं कि उसे कार्यरूप दे दिया गया। जैसी वात, वैसा काम! पुलिस फौज महा-धूमधाम के साथ मुझे लेकर निकल पड़ी। पहले शहर!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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