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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


बहुत-से लोग मुझसे मिलने, मेरा अभिनंदन करने, मुझसे संवेदना जताने के लिए मेरी मेज तक आए। उन लोगों ने मेरे प्रति समर्थन जाहिर करते हुए मुझे प्रोत्साहित भी किया। आगे बढ़ती रहो, हम सब तुम्हारे साथ हैं-इस तरह के वाक्य भी कहे। उन लोगों ने मेरी ताकत और साहस के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया। हन्नान अशर्फी भी आए! मध्य-पूर्व के वाशिंदा हैं। शायद इसीलिए मुझसे किसी तरह की आत्मीयता महसूस करते हैं। वे मेरी बगल में बैठकर फिलिस्तीनी लोगों की समस्याओं के बारे में बताते रहे। किन्हीं दिनों वे यासिर अराफात के घनिष्ठ व्यक्ति थे, अब वही यासिर अराफात ही उनकी राय में बड़ी समस्या बन गए हैं। हन्नान अशर्फी ने बताया कि वे ईसाई हैं, अरब हैं और फिलिस्तीनी भी हैं। वे अपने देश के लिए जान दे सकते हैं। इजरायल के अत्याचार दिनोंदिन स्पष्ट रूप से बढ़ते जा रहे हैं। अराफात अब नेतृत्व नहीं दे पा रहे हैं। अब नया नेतृत्व चाहिए। अशर्फी मुझसे यूँ बात कर रहे थे मानो उन सब इलाकों की खबरें, मेरी उँगलियों की पोर पर हैं। वे खद भी अराफात के सलाहकार हैं। अब, जब सलाहकार ही अराफात पर भरोसा नहीं रख पा रहे हैं तो स्थिति सचमुच सुखद नहीं है।

इस वक्त मैं अकेली हूँ। अपने आमने-सामने! अपने से मुखातिब! काफी रात हो चुकी है। मैं अपने लेखन को लेकर इतनी हीनता की शिकार क्यों हैं? मैं अपने को इतनी तीली-तिनका क्यों समझ रही हूँ! मैं चाहे जैसा भी लिखती होऊँ, मेरे लिखने की वजह से पूरा एक देश पागल हो उठा। लाखों-लाखों कट्टरवादी मुझे फांसी पर चढ़ाने को उतावले हो उठे-यह क्या छोटी-मोटी वात है? मैंने अपने लेखन के माध्यम से नारी-विरोधी, मानवता-विरोधी, घिसी-पिटी धर्मशक्ति पर सचमुच प्रहार किया है। यह क्या हर किसी के वश की बात है? सिर्फ लेखन के दम पर इतना कुछ कर डाला। इतनी सारी वगावत! प्रतिक्रियाशील ताकतें मेरे खिलाफ नीला नक्शा बनाकर, आगे बढ़ती जा रही हैं। अभी भी मैं त्याज्य और उपेक्षित। अभी भी वे लोग मरे कलामां से वंतरह खौफ खाते हैं। यह क्या मामूली बात है?

मैं खिड़की पर आ खड़ी होती हूँ। मैं तेईसवीं मंजिल पर रहती हूँ। सबसे ऊंची मंजिल पर! ताकि ऊपर से मैं सारे नज़ारे देख सकूँ। खिड़की खोलत ही ठंडी हवा का झोंका, मुझसे लिपट गया। मैंने उस हवा को अपने अंदर उतार लिया। रात का गाथेनवर्ग बेहद खूबसूरत नजर आ रहा है। असल में मूड अगर अच्छा हो तो मामूली से मामूली चीजें भी असाधारण नजर आती हैं। मैंने गौर किया है कि मूड खराव हो, तो नजरों के सामने से अगर हाथी भी गुजर जाए तो भी वह नजर नहीं आता। सामने अपने पंख पसारे अगर मोर भी नाच रहा हो, तो वह मुझं तुच्छ नजर आता है।
प्रेस जनता से अपने को बिल्कुल अलग करके अपना मान-सम्मान बचाकर, मैं गोथेनवर्ग से स्टॉकहोम लौट आई। जाते-जाते रास्ते में पुलिस के साथ ही आराम-आराम से गप-शप होती रही। ये लोग भी खुशियाँ मनाते हैं, इनको भी गुस्सा आता है। उन लोगों की जिंदगी में कितनी-कितनी कहानियाँ हैं। मैं तो बीच-वीच में यह भी भूल जाती हूँ कि वे लोग पुलिस वाले हैं। अपने निर्वासन के जीवन में वे लोग ही मेरे दोस्त बन गए थे। मैंने यह भी देखा है कि किसी असाधारण हस्ती से मेरी ज्यादा दोस्ती नहीं होती। जो लोग अति साधारण हैं, जिनका जीवन नितांत घरेलू है। वही फटाफट मेरे करीब चले आते हैं। सच तो यह है कि मेरी जिंदगी में कोई बनावटीपन नहीं है, कोई लोक-दिखावा नहीं है, कोई चकाचौंध नहीं है, ऊपर उठने की महत्वाकांक्षा नहीं है, सीढ़ी ढोना नहीं है। मैं तो मिट्टी के साथ मिलकर मिट्टी बनी रहती हूँ। अपने छोटे-मोटे दुःख-सुख में साधारण ही बनी रहती हूँ। बाहर से देखकर कोई भी इस बात पर भरोसा नहीं करता और इंसानों की यह गलतफहमी दूर कर दूं, ऐसे किसी उपाय की मुझे जानकारी नहीं है।

यह है मैं जितना ही अलग होना चाहती हूँ, उँगलियों पर दिन गिनते-गिनते, जितना मैं चाहती हूँ कि घर की लड़की, अपने घर लौट जाए, उतना ही जाने कहाँ-कहाँ से वेड़ियाँ आगे बढ़ आती हैं और मुझे बाँधकर कैद कर लेने की कोशिश करती हैं। अब आलम। दिन-भर में फिनलैंड, इंग्लैंड, डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, दि नीदरलैंड्स, आयरलैंड, स्पेन वगैरह देशों से सैकड़ों आमंत्रण मिल रहे हैं। एक ही दिन में सात-सात देशों का आमंत्रण! जाहिर है, इतने सारे आमंत्रण कबूल करना, मेरे लिए संभव नहीं है। मैंने गेबी ग्लेइसमैन को हिदायत दी कि अब से मेरे खत, मेरे पते पर ही आएँ, लेकिन उसने साफ सुना दिया कि सरक्षा-कारणों से ही मेरा पता-ठिकाना इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। लेकिन अब से गैवी के पते पर मेरे खत आएँ, यह मैं विल्कुल नहीं चाहती। यह बात जोर देकर कहने पर, आखिरकार उसने मेरे खतों का ठिकाना बदल दिया। अब से मेरी चिट्ठियाँ, नरस्टेड प्रकाशन के पते पर आया करेंगी। जव में नरस्टेड जाऊँगी, तो अपनी चिट्ठियाँ ले आऊँगी या प्रकाशन का कोई आदमी अगर इधर आएगा तो वही मेरे खत मेरे घर पर दे जाएगा।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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