जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
यह दुनिया अभी भी मेरे सामने धुआँ-धुआँ थी। स्वीडन में पतितावृत्ति निषिद्ध है। हॉलैंड की तरह इस देश में कोई पतितालय नहीं है, लेकिन अचानक-अचानक सड़कों पर औरतें नज़र आ जाती हैं। अधिकांश औरतें पूर्वी यूरोप से आई हैं। कम्युनिज्म टूट जाने के वाद जातीय-सुरक्षा फुर्र हो गई, नौकरी चली गई, दरिद्रता की मार पड़ी और सबसे अन्त में औरतें उड़ाने वाले माफिया-दल के खप्पर में पड़कर पर्व की औरतें पश्चिम की तरफ आ पड़ीं। ये औरतें सज-धजकर झुटपुटे अँधेरे में सड़कों पर आ खड़ी होती हैं! डरी-डरी-सी, सहमी-सहमी-सी! पुलिस की नज़र पड़ जाए, तो वे लोग वाँध ली जाएँगी। इस देश में देह वेचना वैध है मगर देह खरीदना अवैध! गुपचुप अवैध अपकर्म करके अवैध अर्थ-उपार्जन जारी है। आजकल किशोर उम्र के लड़के, समकामी मर्दो की वासना मिटाने के लिए सड़कों पर खड़े रहते हैं। मर्दो के मौज-मजे के लिए यह दुनिया! दरिद्र औरत-मर्द, दोनों ही अमीर मर्दो की लोभ-लालसा, कामना-वासना शान्त करने को मजबूर हैं।
"यहाँ कहीं असमकामी मर्द-वेश्या भी खड़े होते हैं, जिन्हें औरतें, मोल-भाव करके उठा लें?"
माइब्रिट ने हँसते हुए, इंकार में सिर हिलाया।
"नहीं, क्यों? तुम लोगों का देश तो समता का देश है!"
माइब्रिट क्या जवाब दे, उसे कुछ नहीं सूझा।
उसकी जगह अगर मैं होती तो मैं आँख मारकर पूछती, “इतनी खोज-खवर क्यों? तुम्हें क्या कोई चाहिए?"
माइब्रिट जितनी देर मेरे साथ होती है, मुझे अच्छा लगता है। उसके जाते ही, मैं फिर अकेली हो जाती हूँ। पुस्तक-मेले में आए हुए, कई-कई देशों के साहित्यकारों से भेंट हुई। कुछ देर विक्रम सेठ से भी बातचीत हुई। वह इंसान कद में इतना छोटा है, उसकी तस्वीर देखकर कभी अंदाज़ा नहीं हुआ था। उसकी किताव 'स्यूटेबल ब्वाय' मेरे पास है, मगर अभी तक पढ़ी नहीं है। अभी तक पढ़ न पाने की पहली वजह यह है कि वह किताव काफी मोटी है और इतनी भारी-भरकम किताब पढ़ने का मुझमें धीरज नहीं है। दूसरी वजह यह है कि अंग्रेजी भाषा में लिखी किताब पढ़न में मुझे काफी वक्त लगता है। अगर कोई शब्द समझ में न आए तो शब्दकोश में वह शब्द देखकर उसका अर्थ जानना और फिर पढ़ने का धीरज भी मुझमें बिल्कुल नहीं है, लेकिन किसी वादामी रंग के व्यक्ति को देखकर या अपने अंचल के किसी प्राणी को देखकर मुझे लगता है, जैसे वह मेरा अपना है। विक्रम सेठ भी मुझे अपना लगा। यहा तो में गारों के समुन्दर में ऊव-डूब कर रही है। ऐसे में बादामी लोग मेरे लिए तिनके का सहारा हैं, लेकिन विक्रम सेठ तिनके का सहारा क्यों होने लगे। वे तो बड़े लेखक हैं। रात, खाने की पार्टी में और भी बड़े-बड़े लेखकों के दर्शन हुए। विशाल पार्टी! असंख्य मेजें। अनगिनत कुर्सियाँ ! ढेरों गिलास! प्लेट! एयरेटिफ, शैम्पेन, वाइन, ऐपिटाइजर, फर्स्ट कोर्स, मेन कोर्स, डेजर्टी, कॉफी! पुस्तक-मेले के प्रेसीडेंट ने मुझसे बड़े-बड़े लेखकों का परिचय कराया।
“आप लोग इन्हें जरूर पहचानते होंगे। इनके परिचय की ज़रूरत नहीं है। ये तसलीमा नसरीन हैं।"
सभी ने हँसकर सिर हिलाया, "बेशक! बेशक!''
"इस बार के पुस्तक-मेले में, ये प्रधान अतिथि हैं।"
सभी के चेहरों पर अभिनंदन-भरी मुस्कान। प्रधान अतिथि अन्य अतिथियों के साथ कुर्सी पर आसीन हुई! इस अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेले में अनगिनत लेखक आए हैं। जर्मनी से गुंटर ग्रास! गुइन पज्जेवांग। हंगरी से पीटर नादास । इंग्लैंड से टेरी प्राट्चेट। संयुक्त राष्ट्र से मेरिलिन फ्रेंच, नॉर्मन मेलर । रूस से येवगेनी येवतुशेम्को. तुर्की से अजीज नेमिन। मोरक्को से फातिमा मरिसिनी! कनाडा से माइकेल अनहाटजी, मार्गरेटा ऐटबड। ऐसे ही अनगिनत लेखक! कबि! उन दिनों तक मैंने येवतुशेस्को की कविताएँ और गुन्टर ग्रास की कुछेक रचनाओं के अलावा और कुछ भी नहीं पढ़ा था। किसी के साथ भी मैं उनकी रचनाओं के बारे में बात नहीं कर सकी।
जहाँ तक मर लेखन का सवाल है, मैं क्या लिखती हूँ, क्यों लिखती हूँ, इस सवकी जानकारी के बावजूद, मेरा ख़याल है कि किसी ने मेरी किताबें अभी तक नहीं पढ़ी थीं। चलो, एक किस्म से जान वची। मैं जरूर ऐसा कुछ नहीं लिखती, जो इन बड़े लेखकों के पढ़ने या तारीफ के काबिल हो। गैबी ग्लेइसमैन ने यूरोप के अखबारों में मेरी रचनाएँ छपाने का इंतजाम किया था। दो रचनाएँ छपी भी थीं। लेकिन, उसके वाद मैंने खुद ही मना कर दिया? क्योंकि जिस तरीके से मेरी पहली रचना का अंतिम हिस्सा काट दिया गया था, मुझे अच्छा नहीं लगा। मेरी रचनाएँ संसर क्यों की जा रही हैं? मैं तो सेंसरशिप के खिलाफ बातें करती हूँ। अपनी रचना का कोई हिस्सा अगर काटना है तो मैं ही काढूँगी। अन्य किसी को काटने का क्या हक है?
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