जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
"यह कैसी बात? ये लोग कौन हैं?"
"ये लोग मर्द हैं, इनमें से कोई ट्रान्सवेस्टाइट है, कोई ट्रान्ससेक्सुअल! ये लोग मर्दो के इंतज़ार में खड़े हैं। इनमें से जो पसंद आ जाएगा, मर्द की गाड़ी उसके सामने थम जाएगी।"
हमने उस जगह का दो बार चक्कर लगाया। मुझे उन लोगों के सामने कोई भी गाड़ी रुकी हुई नज़र नहीं आई। मेरे दिमाग में कई-कई सवाल कुलबुला उठे।
"तुमने कैसे समझ लिया कि ये लोग मर्द हैं?"
"बस, समझ गई! आसान-सी बात है।"
“समझने की वजह जानना चाहती हूँ। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया।"
"तुम भी न...कैसी बातें करती हो! देखते ही समझ में आ जाता है।"
"देख तो मैं भी रही हूँ, लेकिन समझ जो नहीं आया।"
“उनके पैर देखो! जाँघों पर नज़र डालो। ऐसी पेशी-बहल पाँव औरतों के नहीं होते। उनके हाथों की तरफ गौर से देखो! क्यों, पेशियाँ देखीं?"
"और छातियाँ?"
"जिन लोगों ने सेक्स-चेंज कराया है, उन लोगों की छातियाँ तो हैं न?"
“सेक्स क्या सचमुच चेंज किया जा सकता है? फर्ज करो, कोई मर्द अगर औरत बन जाता है, तो उसके पेट में यूट्रस तो नहीं बिठाया जा सकता न? मर्द के शरीर में योनि कैसे बनाते हैं?"
"वह मुझे नहीं पता।"
"यह ट्रान्सवेस्टाइट क्या है?"
“जो लोग अपोजिट सेक्स के कपड़े पहनते हैं, अपोजिट सेक्स जैसा बर्ताव करते हैं और ट्रान्ससेक्सुअल उसे कहते हैं, जो लोग अपने को अपोजिट सेक्स का मान लेते हैं और जो लोग ऑपरेशन के जरिए सचमुच सेक्स बदल लेते हैं।"
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