लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मैंने पुस्तक-मेले का उद्घाटन संपन्न किया। वहाँ मुझे फीता काटना पड़ा। पत्रकार सम्मेलन में भी बैठना पड़ा। हजारों-हजारों लोगों की भीड़, मानो उमड़ी पड़ रही थी। बातचीत करने से ज्यादा, सूरत दिखाने की जरूरत थी। खैर, लोग-बाग चेहरा ही देख रहे थे। मेरा ऑटोग्राफ ले रहे थे। यहाँ मैं लेखिका हूँ! ऐसी लेखिका, जिसकी किताब, किसी ने भी नहीं पढ़ी। जिस लेखिका का सिर्फ नाम-भर सुना है, तस्वीरें देखी हैं। उस लेखिका के प्रति लोगों के मन में दया-करुणा है, क्योंकि उस लेखिका, उसके लेखन के लिए, उग्रवादी उसे मार डालने की कोशिश कर रहे थे। मेरी रग-रग यह हकीकत समझती थी। इसीलिए मैं वहाँ से उठ आने के चक्कर में रहती थी। शायद इसीलिए लोगों की भीड़ चीरकर पुस्तक-मेले के अहाते से बाहर निकल आना चाहती थी। मैं खुली-खुली साँस लेना चाहती थी। हँसते-मुस्कराते हुए, झुण्ड भर किचिर-मिचिर में मेरा दम घुटता था! लोगों की तरफ से सैकड़ों सवालों की वौछार-मैंने ऐसा क्या लिख डाला कि कट्टरवादी मुसलमान भड़क उठे? बांग्लादेश में औरत की स्थिति कैसी है? वहाँ की प्रधानमंत्री ता औरत हैं, इसका मतलब क्या यह नहीं है कि वहाँ औरतों की स्थिति भली है? देश में मेरे नाते-रिश्तेदारों पर क्या किसी तरह के हमले हो रहे हैं? मैं क्या किसी दिन अपने देश लौट सकूँगी? यहाँ क्या मैं कुछ लिख रही हूँ? मेरी भावी योजनाएँ क्या हैं? वांग्लादेश की औरतों के लिए पश्चिमी लोग यहाँ से कैसे मदद कर सकते हैं? कितनी ही बार तो इन सब सवालों का जवाव दे चुकी हूँ! टेलीविजन, रेडियो, पत्र-पत्रिकाएँ, कहाँ नहीं जवाव दिया। स्टॉकहोम में अब तक फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क, फिनलैंड, नॉर्वे, इटली, स्पेन, वेल्जियम, जापान, हॉलैंड, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया वगैरह अनगिनत देशों के पत्रकार आते रहे। वे लोग ग्रैंड होटल या इसी किस्म के किसी होटल में ठहरते थे। होटल का मीटिंग-रूम किराए पर लेकर मेरा इंटरव्यू लेते थे, तस्वीरें लेते थे। तस्वीरें अगर कोई फोटो-पत्रकार ले रहा होता तो उसकी उँगलियाँ हर वक्त कैमरे के शटर पर जमी होती थीं; हर पल क्लिक-क्लिक चलता रहता था। मेरी यह समझ में नहीं आता था कि एक-दो तस्वीरों के लिए वे लोग कई सौ तस्वीरें क्यों खींचते थे। मैंने उन लोगों से पूछा भी था। जवाब में वे लोग सिर्फ हँस दिए।

कभी-कभी वे लोग यह भी कहते थे, “बेहद खूबसूरत तस्वीर पाने के लिए ढेरों तस्वीरें लेना जरूरी होती हैं।"

सभी लोग, सभी पत्रकार, सभी जिज्ञासु जनता ने ही मुझसे एक जैसा ही सवाल किया है। एक जैसा जवाब देते-देते मैं थक चुकी हूँ। क्यों? मैं क्या कोई लेखिका हूँ? मेरे लिए इतना अदम्य आकर्षण क्यों हैं? इसीलिए न कि मैं इन सबकी शिकार हूँ, यही न? इसके अलावा और क्या?

अब मैं अपने लिए थोड़ी-सी आड़ चाहती हूँ।

अचानक माइब्रिट विग पर मेरी नज़र पड़ी। स्वीडिश लेखिका। उनसे पहली मुलाकात वोरस्टेड में हुई थी, जहाँ स्वीडन के लेखकों से जान-पहचान के लिए एक पार्टी दी गई थी। माइब्रिट, सुनहले बालों वाली और नीली आँखों वाली, अंग्रेज लड़की थी। अर्से से वह बिल्ली का चेहरा आँककर मुझे ख़त लिखती रही है। उसने मुझे बताया था कि उसके घर में वह और उसका दोस्त पेर तथा ढेर सारी बिल्लियाँ रहती हैं। बिल्ली का मामला न होता तो मैं जैसे अपने बाकी नव-परिचितों को भूल गई, वैसे ही शायद माइब्रिट को भी भूल जाती। चूँकि बिल्ली के बारे में वह अतिशय नाटकीय है, इसलिए उससे मेरी ज़रा अलग-सी पहचान है। इतनी जल्दी-जल्दी मेरी खोज-खबर लेने की एक बहुत बड़ी वजह भी है। माइब्रिट मेरे लिडिंगो वाले एपार्टमेंट में आ चुकी है। इस पुस्तक-मेले में वह आएगी, यह उसने फोन पर पहले ही सूचित कर दिया था। मेरा फोन नंबर भी बस चंद लोग ही जानते हैं। यह भी मेरी सुरक्षा का ही एक हिस्सा है कि मेरा फोन नंबर कोई भी न जाने। सुरक्षा पहरेदारों के हुक्म के मुताबिक चलते-चलते, अब ऐसी हालत हो गई है कि किसी को अपना फोन
नंबर और पता-ठिकाना देते हुए अब मुझे भी डर लगता है। पहले तो मुझे यूँ डर नहीं लगता था! तो क्या...?

माइब्रिट को पाकर मैंने कसकर उसका हाथा थाम लिया और साथ-साथ चलने लगी। इस वक्त वह मुझे सबसे ज़्यादा अपनी लगी।

माइब्रिट ने फसफसाकर कहा. "ओह गॉड. देखा, क्या धमाकेदार तैयारी हई है तुम्हारे लिए! इतनी-इतनी पुलिस देखकर, मैं तो डर ही गई हूँ..."

"यह डर-वर छोड़ो तो! चलो, अपन घूमें-फिरें..."

''कहाँ?"

"बाहर! यह शहर कैसा है, चलो देखें! कितना-कितना कुछ है देखने के लिए!"

"चलो, यह पुस्तक-मेला तो देख लें।"

"पुस्तक-मेला बहुत बार देखा है! अव भला नहीं लगता।"

"क्यों भला नहीं लगता?"

“जब मैं होती हूँ, तो सबकी निगाहें मुझ पर गड़ी होती हैं। वे लोग किताब नहीं देखते, मझे देखते हैं! मुझे उलझन होती है।"

"भई, जव मशहूर हुई हो तो यह सब तो सहना ही पड़ेगा।"

“सहना ही क्यों पड़ेगा? नहीं भी सह सकती हूँ।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book