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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


गोथेनबर्ग से आमंत्रण आया है! वहाँ हर साल विशाल पुस्तक मेला आयोजित होता है। स्कैंडिनेवियन देशों में सबसे बड़ा पुस्तक-मेला! मुझे उस मशहूर पुस्तक मेले का उद्घाटन करना है। चलो, तैयार हो लो! तैयार हो लो! तैयार हो जाओ! लेकिन तैयारी करने को क्या है? अपने देश से मैं जो चंद साड़ियाँ लाई थीं, उन्हीं में से कोई पहन लूँगी। कुछेक दिनों के सफर के लिए गैबी ने पीले रंग के दो बैग दिए थे। उन पर किसी पत्रिका का नाम लिखा हआ था। वे दोनों बैग ही आसरा-भरोसा थे! मैं इस देश में कोई खरीदारी नहीं करना चाहती! खामखाह खर्च क्यों करूँ? मुझे जो खरीदना है, अपने देश में ही खरीदूंगी। अपने देश में जो चीज़ दो रुपए में मिलती है, वहीं चीज़ यहाँ दो हज़ार रुपए देकर खरीदने में क्या तुक है? मैं बड़े इत्मीनान से हाथ समेटे बैठी रहती हूँ।

पुलिस की गाड़ी में जाना था।

वहाँ पहुँचकर देखा, बिल्कुल दिल दहला देने वाला माहौल । समूचे पुस्तक-मेला में, बम-सूंघने वाले खोजी कुत्ते ओना-कोना सूंघते फिर रहे थे। सैकड़ों तरह के नियम-कानून जारी किए गए थे। यह नहीं किया जा सकता, वह नहीं किया जा सकता। मैं किस कॉरीडोर से आऊँगी-जाऊँगी, कहाँ वैलूंगी, कहाँ खड़ी होऊँगी, किस होटल के किस कमरे में ठहरूँगी, सुरक्षा के लिए पहले से ही सारा कुछ तय हो चुका था। उपयुक्त प्रवन्ध भी कर लिया गया था! अखबार के पहले पन्ने पर पुलिस और खोजी कुत्ते, पुस्तक-मेले में किताबों के ढेर के अंदर समाए हुए! विशाल तस्वीर! वह तस्वीर देखकर, मारे शर्म के मैंने सिर झुका लिया। यह सब वाकई मुझे परेशान करता है। पुलिस के इस उपद्रव से पुस्तक मेले में लोगों की झुंझलाहट मुझ पर ही वरसेगी, मैं जानती हूँ! इस बात से शायद और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क तो सिर्फ मुझे पड़ता है! मैं किसी की भी झुंझलाहट की वजह नहीं बनना चाहती।

पुस्तक-मेले के प्रेसीडेंट मुझे गोथेनवर्ग पुस्तक-मेले का इतिहास बताने लगे। सन उन्नीस सौ पचासी में यह मेला शरू किया गया था। उस साल पाँच हजार दर्शक आए थे और अब पूरे एक लाख न सही, इसके आस-पास की संख्या में ही लोग पुस्तक मेले में आते हैं। यूरोप के किसी पुस्तक-मेले में, मैं पहली बार आई थी। बांग्लादेश और भारत में, मैंने जो पुस्तक-मेला देखा है, वह खुले मैदान में होता है। यहाँ भी मैंने उसी तरह के पुस्तक-मेले की उम्मीद की थी, लेकिन यहाँ आकर मैंने दीवारी के अंदर लगा है। ऊपर छादन! यहाँ किताबें थीं, लेखक थे, किताबें भी बिक रही थीं, लेकिन यह उत्सव या मेले जैसा माहौल नहीं था। यहाँ कोई हलचल नहीं थी। यहाँ लोग धीर-गंभीर चाल में इधर-उधर घूमते हुए। एक-दूसरे से स्वाभाविक लहजे में बातें करते हए! कोई कहीं अचानक गा नहीं उठता था। जो मन में आए कर गजरने का उत्साह नहीं था। यह अमीर देश का पस्तक मेला था। मैं एक-एक किताब उठा-उठाकर देखती रही और देखती रही कि उन किताबों का प्रकाशन किस कदर खूबसूरत है। इनकी बँधाई, इनका मुद्रण किस कदर मोहक! ये लोग पहले दफ्तीवाली जिल्द मढ़ी किताबें निकालते हैं। वह किताब अगर ज़्यादा विकी, तो उसका पॉकेट-संस्करण निकालते हैं। पॉकेट-संस्करण आकार में छोटा होता है और मोटी-कड़ी जिल्द की जगह पतली जिल्द होती है। कीमत भी काफी कम होती है। वैसे सभी लोग किताबें खरीदते हों, ऐसी बात भी नहीं है, लेकिन अधिकांश लोग खरीदते हैं। चूँकि यहाँ के लोग अमीर हैं, इसलिए उनकी कीमत, किसी के लिए भी खास ज्यादा नहीं होती।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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