जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैंने साचा था कि हम बार हवाई अड्डा पैदल-पैदल पार करूँगी। लेकिन नहीं, हवाई जहाज के पेट से, पुलिस फौज, एभा कार्लसन को उतार लाई। चारों तरफ पों-पों, पै-4 का शोर गूंज उठा! रास्ता विल्कुल साफ था! हर पुलिस वाले के हाथ में मोबाइल! चारों तरफ खबर दी जा रही थी-तसलीमा लौट आई है! माल लौट आई है! हर पुलिस वाले के कान में ईयरफोन! उन लोगों को कंट्रोलरूम से ऑर्डर पर ऑर्डर दिए जा रहे थे! दौड़-धूप, अफरा-तफरी! पों-पों! पैं-पैं!
हरे-हरे पात, अब पीले, पीले से लाल,
रंग बदल रहे हैं!
अब आएगा, पत्तों के झरने का मौसम!
और सब दफ्न हो जाएँगे, दूधिया बर्फ में!
नौवीं मंज़िल की खिड़की से, देखती रहूँगी मैं, घिरता अँधेरा!
अँधेरे में झिलमिला उठेंगे,
जहाज, गाड़ी, मकान, दुकान-पाट और लैम्पपोस्ट के चिराग!
मेरे देश के आकाश में भी जगमगाते हैं, ऐसे ही चिराग!
मेरा देश?
क्या सच ही कोई देश मेरा है?
है मेरा कोई शहर या गाँव-देहात?
या मेरा कोई घर? कोई बदन या मकान?
यह जो मैं बहती रहती हूँ, एक देश से दूसरे देश,
एक द्वीप से दूसरे द्वीप! एक आकाश से दूसरे आकाश,
या फिर एक समुंदर से दूसरे समुंदर तक!
यूँ बहते-उतराते किसी दिन, रात के अंतिम-प्रहर
या दिन-दोपहर, कहाँ जा भिड़ेगा मेरा जीवन?
मैं भी अचानक-अचानक देखती हूँ,
अपने भीतर बसी दंगल-भर हरियाली,
अब बदलने लगी है रंग! हरी से पीली, पीली से लाल!
इसके बाद दबोच लेगी हहराती शून्यता,
झर जाऊँगी मैं भी! ओढ़ लूँगी दूधिया क़फन,
और दफ्न हो जाऊँगी गहरे खड्ड में!
स्कौंडिनेविया की सर्दी गड़ा देती है दाँत, ग्रीष्म-बाला पर,
इससे भी बढ़कर, पैने हैं दाँत उस आग के,
जो जलाता-झुलसाता है, मुझ निचाट अकेली को,
भीपण अकेली को!
मेरे लिए लिडिंगो में एक एपार्टमेंट किराए पर लिया गया है। असवाव-सज्जित एपार्टमेंट! अस्थायी रिहाइश के लिए असवाव-सुसज्जित एपार्टमेंट ही ज़रूरी है। अब मैं स्वीडन में तो रहने जा नहीं रही हूँ कि असबाबहीन एपार्टमेंट किराए पर लूँ। मुझे तो अपने देश वापस लौटना है। बुद्ध की तरह खाली एपार्टमेंट लेकर असवाब खरीदने का झमेला मैं नहीं पालने वाली! बाद में, घर-गृहस्थी के इन सामानों का मैं क्या करूँगी? सारा कुछ कबाड़ के ढेर में फेंक देना होगा। गृहस्थी! गृहस्थी तो मेरे उस शांतिनगर एपार्टमेंट में मौजूद है। वहाँ जाने के लिए मेरी छाती में आग जलती रहती है! जलती नहीं बुरी तरह धधकती रहती है। लिडिंगो आने से पहले लिलियाना ने मेरे हाथ में आठ हज़ार क्रोनर का एक फोन-विल थमा दिया। मैं तो चौंक गई, इतने रुपए कैसे हो गए? लेकिन विल मेरे हाथ में था। लिडिंगो एपार्टमेंट का किराया, साढ़े तीन हजार! वह भी चुकाना पड़ा। कूट टुखोलस्की पुरस्कार के रूप में जो रुपए मिले थे, अव उसी के सहारे मुझे जीवन गुजारना है। पता नहीं कव अपने देश लौटूंगी? यह वात जैसे मैं नहीं जानती, इस देश की सरकार, लेखक वर्ग, कोई भी नहीं जानता। खत्म होते-होते, जव सारे रुपए खर्च हो जाएँगे, तब मैं क्या करूँगी? मैं कहाँ से खाऊँगी, कहाँ रहूँगी, मुझे कुछ पता नहीं। मेरा ख़याल है, इस बारे में कोई कुछ नहीं जानता।
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