जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैं तेज़-तेज़ कदमों से होटल लौट आई। छोटू'दा ने कुछ देर और रुकने को कहा, लेकिन नहीं, मेरा मन ही नहीं किया। इस दुनिया की जघन्य निष्ठुरता देखने का उत्साह ही नहीं जागा। रात-भर मैं सो नहीं पाई। पूरी रात मैं छटपटाती रही। मेरे मन में ख़याल आया कि इन अधिकांश औरतों को, लड़कियों का धंधा करने वाले दलाल, झूठ बोलकर किन्हीं और-और मुल्कों से पकड़ लाए होंगे। बिल्कुल वैसे ही, जैसे बांग्लादेश की लड़कियों और औरतों को पकड़ लाते हैं और उन्हें भारत या पाकिस्तान के वेश्यालयों में बेच दिया जाता है। मुझे विश्वास हो गया कि इन लड़कियों को भी किसी जाल में फँसाकर किन्हीं पड्यंत्रकारी चक्र ने इन लोगों के इस पेशे में उतारा है। चारों तरफ चाहे जितनी भी झिलमिलाती रोशनी हो, मुझे यह कतई विश्वास नहीं होता कि कोई भी औरत अपनी इच्छा से इस पेशे में आई होगी। ये औरतें राहगीरों की तरफ चाहे जितनी भी हँसी उछालती हों, अंदर-ही-अंदर तकलीफ और दर्द से उनकी छाती फटती होगी। एमस्टरडम की पतिताएँ, नीलाभ रोशनी तले, लगभग नग्नप्रायः हालत में, मर्द-ग्राहकों के इंतजार में खड़ी रहती हैं! काँच की दुकानें! दुकानों में विस्तर विछे हुए! मोल-भाव करने के बाद मर्द उनकं हम विस्तर होते हैं। अपनी देह वेचकर, अंत में ये औरतें अपनी कमाई के रुपए गिनती हैं और दुकान समेटकर अपने घर लौटती हैं। इन पतिताओं में कोई काली, कोई गोरी और कोई वादामी ! किसी के बाल काले, किसी के सुनहरे! यह कोई वेश्या-मुहाल नहीं, बल्कि परी-की-परी एक दनिया है। इस दनिया में औरतों के जिस्म का हाट वैठा है! अमेरिका, यूरोप, एशिया, अफ्रीका वगैरह देशों के मर्दो की जीभ मारे लोभ और भूख-प्यास कं लपलपा रही है!
मैं स्वीडन लौट आई!
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