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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मैं चलती रही...चलती रही! सैकड़ों-हज़ारों घर! मेरी तो पलकें नहीं झपक रही थीं। मेरा विस्मय ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। वहाँ जिस्म का हाट लगा हुआ था! किसी-किसी दरवाजे के सामने मोल-भाव चल रहा था। मैं अपनी सांसें रोके, वह सब अविश्वसनीय दृश्य देखती रही। मारे दहशत के मैं काठ हो आयी। सिर्फ और सिर्फ मर्दो की भीड़! कौन सैलानी है, कौन ख़रीदार, कुछ भी समझने का उपाय नहीं था। नशेबाज़ों की भीड़! दारुबाजों की भीड़! मुझे खौफ हो आया, कहीं कोई मुझ पर ही न टूट पड़े। सभी लोगों की आँखें लोभ से चमकती हुईं! यौन की दुकानें! यौन के जादूघर! वहाँ लाल-नीली बत्तियाँ जलती-बुझती हुईं! कहीं मद्धिम रोशनी या कोई गली देखते ही, मैं मारे दहशत के, छोटू'दा को कसकर थामे हुए वहाँ से तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ जाती थी! वह अँधेरा पार कर जाती थी।

वेश्यावृत्ति, रूपाजीवाओं का हाट, कहीं इतने निकृष्ट तरीके से वैध हो सकता है, मैं नहीं जानती थी। पश्चिम के किसी भी देश में औरत की देह, इतनी विकट हद तक भोग की सामग्री हो सकती है, यह मेरी कल्पना में भी नहीं था। जिस देश में कहीं कोई अभाव नहीं है, सरकारी समाज कल्याण मौजूद हैं, भत्ते का इंतज़ाम है, वहाँ औरतों को चरम पतिताओं का धंधा क्यों करना पड़ता है? हॉलैंड में सभी कुछ वैध है। यूरोप के अन्य किसी भी देश में मारिजुआना, हासिस, हिरोइन निषिद्ध है, लेकिन इस देश में नहीं! इस देश में सभी नशीली चीजें वैध हैं। इस देश में पतितावृत्ति भी वैध है! वह तो बड़ी मेहरबानी है कि यहाँ खून-खराबा निषिद्ध रखा गया है, वरना मानवाधिकार के नाम पर उसे भी वैध समझा जाता। इस देश में जो वैध चीज़ मुझे भली लगी है, वह है-यूदेनेसिया! यूरोप में यही एकमात्र देश ऐसा है, जहाँ यूदेनेसिया यानी इच्छामृत्यु जायज़ है! वैध है! इंसान को जैसे जीने का अधिकार है, ठीक वैसे ही मरने का भी अधिकार है! असहनीय, यंत्रणादायी, पंगु, अपाहिज, प्रतिवंदी जीवन लेकर युगों तक निरर्थक गुज़ारने के बजाय मौत कहीं बेहतर है।

अली-गली में जो कुछ भी नज़र आ रहा था, मैं भयंकर खौफ़ से भरती जा रही थी। मैं डरी-सहमी-सी छोटू'दा से सटी-सटी चलती रही! मारे भय के मैं उसका हाथ कसकर पकड़े रही! मेरी पकड़ और कसती गई।

छोटू'दा मुझे वार-वार आश्वस्त करता रहा, "डर मत! डरने की क्या बात है?"

लेकिन दारू चढ़ाए हुए लोगों को देखते ही मैं डर से सिकुड़ जाती हूँ। अली-गली देखते ही मैं दहशत से भर जाती हूँ। अँधेरा देखते ही मैं ख़ौफ़ से भर उठती हूँ। मुझे डर लगता है, तो वस, लगता है। मैं चाहे जितनी भी साहसी, हिम्मतवर क्यों न कहलाऊँ मेरा यह भय दूर नहीं होता। कभी होगा भी नहीं।

छोटू'दा ने उस चकले-मुहाल के बारे में बताया, “यह बेहद पुराना हाट है। पिछले छह सौ सालों से यह फल-फूल रहा है। नाविक-मल्लाह यहीं उतरते थे, इसलिए डैम के आस-पास ही वेश्यालय भी बस गए। वेश्याओं का महाल आवाद हो गया। आमस्टेल नामक नदी पर बाँध तैयार किया गया। यहीं, वाँध के करीब ही औरतों का देह-व्यापार पनप उठा। वे नाविकों को अपना शरीर बेचने लगीं। तब से लेकर आज तक यह धंधा चल रहा है-"

हाँ, जरूर! तब से लेकर आज तक वही सिलसिला कायम है! मैंने मन-ही-मन दुहराया।

वहाँ सिर्फ गोरी औरतें ही नहीं थीं! काली, पीली, बादामी औरतें भी थीं। मानो समूची दुनिया इसी एमस्टरडम के 'दे वालेन' इलाके में आ वसी हो। समूचे जहान में यही हो रहा है। औरतें भोग की वस्तु बनती जा रही हैं। यह वस्तु दुनिया भर में भोगी जा रही है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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