जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
वैन गॉग म्यूजियम! मदाम टूसो का म्यूजियम! ये सारे म्यूजियम भी देख लिए गए। छोटू'दा को मैं रैम्वेंट दिखाने भी ले गई।
"देखो, यह है रैम्फ्रेट! यह रही उसकी मशहूर पेंटिंग-नाइटवाचर!"
छोटू'दा विस्मय से मुँह बाए देखता रहा।
ना, रैम्बेंट उसे उतना मुग्ध नहीं कर पाया। वह तो तव चकित-विस्मत नजर आता, जब किसी किताब की दुकान पर उसकी नज़र पड़ जाती थी, जहाँ उसे कतार-दर-कतार मेरी किताबें सजी हुई नज़र आतीं। पूरे मुखपृष्ठ पर मेरी तस्वीरें! डच भाषा में भी मेरी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। प्रकाशक ने ये किताबें मुझे नहीं भेजी थीं। ये लोग यूँ फटाफट किताबें कैसे छाप लेते हैं? बस, कारोबार की गंध मिलनी चाहिए, उसके बाद, वक्त इनके लिए कोई मसला नहीं होता, लेकिन अगर व्यापार की गंध न हो तो पांडुलिपि पर नज़र डालने या उस पर विचार करने के लिए पूरे पाँच वर्षों में भी पाँच मिनट का वक्त नहीं होता, लोग मेरी किताबें खरीद रहे हैं, यह देखकर मैं संकोच से मुँह छिपाए, झट् से बाहर निकल आई, लेकिन छोटू'दा मारे उत्तेजित और उत्साहित मुद्रा में मेरा हाथ खींचते हए दुबारा दकान में ले गया।
इस बार वह सीधे किताब-विक्रेता के सामने जा खड़ा हुआ। मेरी एक किताब उठाकर उसका मुखपृष्ठ मेरे चेहरे से सटाकर उसने कहा, “यह इसकी तस्वीर है। यह इस किताब की लेखिका है-तसलीमा! तसलीमा नसरीन! मेरी बहन है! हाँ, मेरी बहन है यह!" छोटू दा की आवाज़ उत्तेजना से काँप रही थी।
वह आदमी एकदम से हड़बड़ा गया।
"अच्छा, सच? सच्ची...? आपसे मिलकर मुझे बेहद खुशी हुई। आपकी किताब बहोत अच्छी चल रही है। यहाँ तो 'बेस्ट सेलर' है। कुछेक प्रतियों पर हस्ताक्षर कर देंगी?"
किताब-विक्रेता के अनुरोध पर चंद किताबों पर दस्तख़त करके मैं छोटू'दा को खींचते-खींचते बाहर निकल आई।
"क्या, री, तुझे शरम लगती है?" "नहीं, शर्म नहीं..." "फिर क्या...?" “अपने को बेहद पराधीन महसूस करती हूँ।"
"क्यों?"
"मैं इस किताब की लेखिका हूँ! मेरी तरफ देखते हुए लोग-बाग शायद काफी
कुछ अपेक्षा रखते हैं। यह हकीकत उस वक्त मुझे ऐसी स्थिति में डाल देती है कि मैं अपनी मनमानी नहीं कर सकती। उस वक्त मुझे खुद ही मेरा अपना असली 'मैं' असली नज़र नहीं आता।"
ना, मैं जो करना चाहती थी, छोटू'दा नहीं समझ पाया। उसके बाद मैंने किसी दूसरी किताव की दुकान की छाया तक की तरफ भी कदम नहीं रखा। उसके बाद वेस्ट सेलर लेखिका, चुसनी आइसक्रीम चूसते-चूसते, सड़कों पर पैदल-पैदल घूमते हुए, तमाशेबाज़ लोगों के हाथों के करतब-खेल देखते-देखते मजे लेती रही। ये सब राग-रंग मुझे किसी संकोच में नहीं डालते, लेकिन मेरे पाठक सकुचा जाते हैं।
रात छोटू'दा मुझे एक जगह ले गया। उसने बताया कि वह एक अभिनव जगह है! रात नौ-दस बजे, जब होटल लौटने का वक्त हो आया, उस वक्त रात का खाना खाने के बाद, छोटू दा मुझे डैम स्क्वायर ले गया। वहाँ, 'दे वालेन' नामक एक मुहल्ले में मैंने स्तम्भित होकर देखा, वहाँ कतार-दर-कतार दुकानें सजी हुई हैं। उन दुकानों में सिर्फ ब्रा और पैंटी पहने हुए या पूरी तरह नंग-धडंग औरतें खड़ी थीं। अलग-अलग उम्र की औरतें। लाल रंग की रोशनी तले वे औरतें बेहद रूपसी, बेहद रहस्यमयी नज़र आ रही थीं। किताबों में अप्सराओं की जैसी तस्वीरें छपी होती हैं। उसी तरह की एक-एक अप्सरा! दुकान के अंदर ही बिस्तर बिछा हुआ था। अंग-प्रत्यंग दिखाते हुए, औरतों का आमंत्रण-खरीदो! खरीद लो यह देह! एक घंटे के लिए खरीद लो!
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