जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
फिलहाल, मैं वेसुध-जी छोटू'दा के साथ पीछे छोड़ आई जिंदगी ही जीती रही।
अगले दिन भी मैं और छोटू'दा पूरे एमस्टरडम शहर की सैर करते फिरे । पुलिस से मुक्त होकर यूँ घूमने-फिरने में मुझे बेहद मज़ा आया। मुक्ति की खुशी मेरे रोम-रोम में फूटने लगी। जैसे हम दोनों बचपन के वही छुटके-छुटकी भाई-बहन हों। अपने सारे पिछले खिंचाव भूल गई। अपनी मन-मर्जी की दौड़ लगाती रही। कहने को यह धनी देश है मगर सड़क-किनारे भीख पाने के लिए, लोग बैठे हुए! मेरी नज़र उन लोगों की तरफ जा पड़ती है। वे लोग बैठे-बैठे कितावें पढ़ते हुए, सामने टोपी बिछी हुई और कागज की मोटी दफ़्ती पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ-वो.आर. हंगरी! हम लोग भूखे हैं!
मैंने ठिठककर पूछा, “आप तो अकेले हैं, फिर 'वी' यानी 'हम लोग' क्यों लिख रखा है? हम लोग कौन हैं?"
मैंने सोचा, इस साहब को अच्छा सबक दे डाला या कोई बड़ी गलती की तरफ उनका ध्यान खींच दिया, लेकिन उस आदमी ने अपनी बगल में बैठे कुत्ते की तरफ इशारा किया। उस कुत्ते पर पहले मेरी नज़र नहीं पड़ी, ऐसी बात नहीं थी। असल में मेरी पूर्व-देशीय निगाहों ने उस कुत्ते को गिना ही नहीं था। कुत्ते के भूखे-मलिन चेहरे की तरफ देखते हुए ख़ासकर उसकी थकी-थकी आँखों में झाँकते हुए, मुझे बेहद तरस आया। मैं उसे कुछ देना चाहती थी, लेकिन मेरे पास सिर्फ डॉलर थे। मैंने स्वीडिश क्राउन को डॉलर में बदल लिया था। इसे एसकूडो किया जा सकता है, गिल्डर किया जा सकता है, लेकिन क्राउन को पहले डॉलर बनाने की ज़रूरत नहीं होती-यह कहावत भी, क्या थोड़ा-बहुत मेरी समझ में आईं?
छोटू दा ने कहा, “रुपए-पैसों के मामले में तेरी बुद्धि हमेशा से ही ज़रा कम-कम है।''
हाँ, यह बात मैं भी कबूल करती हूँ।
बहरहाल छोटू दा के रोकने के बावजूद मैंने उन दोनों भूखों को बीस डॉलर दे डाले। चूँकि मैं बेहद खुश थी, इसीलिए इतना दे डालने का मन हो आया और वह खुशी भी, छोटू'दा को देखने की खुशी! अब तक अनाथ, असहाय-सी पड़ी हुई थी, लेकिन छोटू'दा से मिलकर मुझे बखूबी समझ में आ गया कि मेरा भी कोई सगा है, कोई अपना है। एमस्टरडम की फुटपाथ पर मैंने दो-तीन लोगों को देखा, जो 'भूख' का साइनबोर्ड टाँगे बैठे हुए थे। सिर्फ इतना ही नहीं, सड़कों पर लोग कई-कई तरह का स्वांग रचाए, पैसे वसूल कर रहे थे। धनी देशों में भी इस किस्म की 'भीख' चलती है, तरह-तरह के स्वांग रचाए पैसे वसूल किए जाते हैं, आज से पहले मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी। आपादमस्तक सुनहरा रंग पोते एक मूर्ति लगभग घंटे भर से एक तख्ते पर खड़ी थी, बिल्कुल कठपुतली की तरह! खड़ी तो थी मगर बूंद भर भी हिलडुल नहीं रही थी। मारे खौफ और विस्मय से मैं उस मूर्ति को एकटक देखती रही। इंसान अपनी देह में इतनी स्थिरता कैसे ला पाता है, मैं ताज्जुब में पड़ गई। शायद अभाव ही इंसान को इतना अचल कर देता है। हाँ, अभाव मोहताजी और शायद कभी-कभी धन-दौलत भी इंसान को अद्भुत ढंग से स्थिर कर देती है। स्वीडन के अतिशय धनी लोग भी तस्वीर की तरह बैठे-बैठे, साथी-संगीहीन दिन गुज़ारते-गुज़ारते, किसी दिन आत्महत्या कर लेते हैं, किसी और ज़्यादा स्थिरता की ओर चले जाते हैं।
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