जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैं बार-बार उसे समझाती रही, “मत आओ! कहीं मत आओ! मैं तो वांग्लादेश लौट ही आऊँगी! हम सब मिलजुलकर, एक साथ रहेंगे।"
देश से बाहर आने के बाद अब तक कितना कुछ तो हुआ! कितने-कितने सम्मान! कितने पुरस्कार, लेकिन आज का दिन ही मुझे सबसे अच्छा लग रहा है। छोटू' दा का होटल स्टेशन के करीब था। रेलवे स्टेशन के बुक-स्टॉल पर पत्र-पत्रिकाओं का रैक वाहर ही लगा हुआ! वहाँ डच पत्र-पत्रिकाओं की कतार! अचानक मेरी नज़र पड़ी और दूर खड़ी-खड़ी एकदम से चौंक उठी! दो-तीन पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर मेरी तस्वीरें! मैं बुक-स्टॉल के करीव चली आई। चंद पत्रिकाएँ उठाकर मैं उलट-पलटकर देखती रही! प्रायः हर पत्रिका में मेरी तस्वीर! रोमन हफों में अपने नाम का हिज्जे देखकर मैंने अंदाजा लगाया कि यह मुझ पर ही लिखी गई कोई रचना है! बहरहाल भिन्न भाषा की रचना पढ़ना, मेरे लिए संभव नहीं है।
हम दोनों लेटे-लेटे काफी रात तक बातें करते रहे।
"बता न, सपू! देश लौटने के बारे में मेरा क्या होगा?"
"तेरा लौटना क्या अब संभव है?"
"क्यों नहीं संभव है?"
"खालिदा ज़िया होती तो तुझे देश लौटने ही नहीं देती।"
"अरे! सिर्फ कहने-भर से हो गया? मैं अपने नागरिक अधिकार के लिए लडूँगी।"
"अगला चुनाव हो जाने दे! अवामी जब सत्ता में आएँगे, तब जा सकेगी! अभी तो बिल्कुल संभव नहीं है।"
"मुल्लों की खुराफात तो काफी कम हो गई है।"
"किसने कहा कि कम हो गई? खालिदा तो मुल्लों के इशारे पर उठती-बैठती है।"
"देश की हालत क्या कभी नहीं सुधरेगी?"
''अगर हसीना सत्ता में आई तो शायद कुछ ठीक करे।"
"हसीना भी क्या ठीक करेगी? वह खुद भी तो धर्म-धर्म की रट लगाए रहती है।"
मैं छोटू'दा को क, ख, ग, घ, ङ, च की खोज-खवर लेने की हिदायत देती हूँ। उनके प्रति कृतज्ञता जाहिर करने की याद दिलाती हूँ। मैंने उससे आग्रह किया कि वह ङ के घर जाकर मेरी तरफ से माफी माँग ले। ऊ के प्रति अपनी बदसलूकी की सारी कहानी भी कह सुनाई। और भी बहुत सारी बातें करती रही। बहुत सारी बातें पूछती रही। बहुतों के बारे में खोज-खबर लेती रही। छोटू'दा जब मेरे शांति नगर वाले घर के बारे में बता रहा था, मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं वही हूँ, उसी घर में, सबके साथ! कहाँ की जिंदगी, कहाँ छिटक गई! कौन-सा वास्तविक है? वह जीवन
या यह जीवन? असल में मैं कौन-सा जीवन जीती हूँ? पीछे छोड़ आया जीवन, मैं मन-ही-मन जीती रही। फिलहाल जो जीवन मेरे हाथ में है, वह तो मैं पीछे छोड़ आई। जीवन को दुवारा पाने के लिए जी रही हूँ। कौन-सा जीवन सच्चा है?
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ