जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
गोरी चमड़ी वाले आगे बढ़ते जा रहे थे। वाकी मुसाफिरों का पासपोर्ट देखकर ही एमिग्रेशन उन्हें छोड़ देता था! एक मुझे ही अनुमति देने को राजी नहीं था। मैंने अपने मेरुदंड के अंदर कुछ सरसराता हुआ महसूस किया। इस आदमी ने मुझे इसलिए रोके रखा है, क्योंकि मेरे पास दरिद्र देश का पासपोर्ट है और चूँकि मर वदन की चमड़ी गोरी नहीं, काली है।
मैंने फिर सवाल किया, “आपको क्या लगता है, आपकं देश में क्या में वस जाने के लिए आई हूँ?"
उस आदमी ने सहमति में सिर हिला दिया।
“देखिए, मैं आपके यहाँ, कुल तीन दिनों के लिए आई हूँ। आपके देश में मैं रहने नहीं आई।"
उस आदमी ने मेरी तरफ अविश्वास की नजरों से देखा। उसकी निगाहों में बूंद भर भी विश्वास नहीं था, न तिल भर संवेदना! बस ढेर-ढेर घृणा! उस शख्स ने मुझे आगाह कर दिया कि वह मुझे बाहर कदम नहीं रखने देगा। मैंने पहले कभी अपने को इतना असहाय महसूस नहीं किया। दूर से ही मैंने देखा, छोटू दा खड़ा है।
"अच्छा, आप मुझे जाने क्यों नहीं दे रहे हैं! मेरे पास तो इस देश का वीज़ा है?"
वह आदमी सख्त-सा चेहरा बनाए बैठा रहा।
मेरा सूटकेस आने वाला था! उसके लिए भी मुझे इंतज़ार करना था।
मेरी आवाज़ अंदर-ही-अंदर जलकर बुझ आई।
मैंने बमुश्किल कहा, “आप फोन करके मेरे भाई से पूछ लीजिए! आप पता कर लें कि वह होटल में ठहरा हुआ है या नहीं। उस नाम का कोई शख़्स वहाँ है या नहीं! पूछे कि वह जहाज का क्रू है या नहीं!"
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