जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैंने गौर किया कि लिसबॉन की बाईं तरफ के रास्ते का नाम इंडिया है, दाहिनी तरफ के रास्ते का नाम है-ब्राज़ील! ब्राज़ील को उसने कॉलोनी बनाया था और इंडिया का उसने आविष्कार किया था। मानो भारत कोई अनाविष्कृत देश था और जिस विशाल देश को वास्को-डि-गामा को आविष्कार करना पड़ा हो। अति मूर्ख की तरह मैं सोचती रही कि ये यूरोपीय लोग अपने देश को हमेशा से ही दुनिया और धरती का केन्द्र मानते आए हैं। पुतगाली नाविक भारत से मसाले लेकर आए और ब्राज़ील से सोना-दाना। लिसबॉन में मैंने देखा वास्को-डि-गामा नाम पर एक लंबा-सा पुल बना हुआ है। यही वास्को-डि-गामा सन् पन्द्रह सौ दो में दुवारा भारत लौटा था और उसने काफी सारे लोगों की हत्या कर डाली थी। कालीकट की हिन्दू जनता ने पुर्तगालियों को मार डाला था, इसलिए सैकड़ों मुसाफिरों से भरा हुआ अरब व्यापारिक जहाज का दरवाज़ा बंद करके उसमें आग लगा दी गई थी। कालीकट बंदरगाह पर वम फेंककर अनगिनत भारतीय जनता को मार डाला गया। जब वह शख़्स पुर्तगाल लौटकर आया तो उसे विराट सम्मान दिया गया और इस भारत ने भी इस व्यापार-लोभी, हत्यारे वास्को-डि-गामा को ही वरण कर लिया। उधर कोलम्बस और उसके चेले-चामुंडों ने अमेरिका की मिट्टी पर कदम रखते ही हज़ारों हज़ार आदिवासियों का पहले ही खून कर डाला था। उसके बाद तो विभिन्न यूरोपीय देश बेहद सुनियोजित ढंग से आदिवासियों को समाप्त करने में पूरी ताकत से जुट गए।
स्टॉकहोम शहर जैसे एक सौ द्वीपों पर बसा है, लिसवॉन शहर सात-सात पहाड़ों पर खड़ा है। ऊँचा-नीचा! इस शहर के घर-मकान भी पश्चिम यूरोप के देशों से विल्कुल अलग-थलग! धनी वस्ती! सटे-सटे घर-मकान! ट्राम रास्ते! उधर गाड़ी-बरामदों में रस्सियों पर सूखने के लिए फैलाए गए रंगीन कपड़े-लत्ते, हवा में उड़ते हुए! ये सब नज़ारे देखकर पूरा शहर, गाँव-सा लगता है। किसी घर का अस्तर-झरी दीवार देखकर, गाँव-देहात जैसा लगता है, शायद किसी गरीव-दरिद्र पर नज़र पड़ते ही, गाँव-सा नजर आता है। किसी ज़माने में पुर्तगाली नाविक के तौर पर दुनिया में नम्बर वन थे। पुर्तगाल यूरोप का शक्तिशाली देश था, लेकिन अब पुर्तगाल का नाम यूरोप के गरीब देशों में गिना जाता है।
पुर्तगाल में बैठे-बैठे ही मैंने ऐलान कर दिया कि मैं सीधे स्वीडन वापस नहीं लौटूंगी। यहाँ से पहले एमस्टरडम जाऊँगी। वहाँ कई दिन रुकूँगी, उसके बाद स्वीडन जाऊँगी। हाँ, जो मैंने कहा, वही होगा। हुआ भी यही! मेरा वक्तव्य ख़त्म! अब मैं जा ही सकती हूँ। दुनिया के निर्यातित, निर्वासित लेखकों के कल्याण के लिए, लिसबॉन को शरणागत लेखकों का शहर बनाने के लिए, लेखक संसद की कोशिश-तदबीर जारी रही। उन लोगों को मैंने एक और बारे में भी आगाह कर दिया। मेरे टिकट पर नाम बदल दिया जाए, क्योंकि मैं तसलीमा हूँ, एभा नहीं! एभा कार्लसन तो हरगिज नहीं!
कभी-कभी तीखी चाह जागती है, फ़रार हो जाऊँ!
बर्च के सागर-तट, ओक और पाइन के खूबसूरत अरण्य से,
शीतल-शांत बाल्टिक सागर से घिरे,
सजे-सजाए नगर से!
लेकिन फरार होकर जाऊँ कहाँ?
दुनिया में कहाँ है और कोई नगर, जो मेरे इंतज़ार में हो?
ढके रखते हैं ये लोग, मेरा समूचा तन-बदन गुनगुनी चादर से!
हाथ बढ़ाने से पहले ही,
झुक आते हैं हथेली पर, झुंड-झुंड प्रेमाई हृदय,
बेहद मन होता है, सारा कुछ फेंक-फांककर कहीं भाग जाऊँ,
लेकिन फ़रार होकर जाऊँ कहाँ?
दुनिया में कहाँ है और कोई इंसान, जो मेरे इंतज़ार में हो?
'छोटू'दा से बात हुई है। वह एमस्टरडम आ रहा है।
'ठीक है," मैंने कहा, "मैं तुमसे मिलने आऊँगी।"
छोटू'दा को विश्वास नहीं हुआ कि मैं सचमुच उससे मिलने एमस्टरडम जाऊँगी।
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