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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


इंटरनेशनल पालिमेंट ऑफ राइटर्स के प्रयास से, लेखकों को मदद देने का काम शुरू हो गया है। यह योजना बनाई गई कि एक-एक देश का एक-एक शहर, निर्यातित लेखकों को सुरक्षित आश्रय देगा। वह शहर, उस लेखक को घर देगा, जीवन जीने में जो खर्च होगा. वह सव भी देगा। शहर के देने का मतलब है. पौर सभा देगी, सरकार देगी। पार्लियामेंट का काम होगा, विभिन्न देशों की विभिन्न सरकारों से कह-सुनकर, उस देश के किसी एक शहर को, उनका आश्रय-शहर बना देने का इंतज़ाम कराना। बेशक यह महान प्रयास था।

पुर्तगाल में मिशेल इडेल भी आई हैं। जैक दारीदा के साथ कई और लेखक भी आए हैं। हेलेन सिक्यूस नामक एक नारीवादी लेखिका से भी परिचय हुआ। अमेरिका से उड़कर आई हुई अनिता देसाई से भी जान-पहचान हुई। सभी लोग मेरी कहानी जानते हैं। हेलेन सिक्यूस ने बताया कि फ्रांस में उन्होंने मुझ पर एक नाटक लिखा है। वह नाटक फ्रांस में काफी दिनों तक प्रदर्शित होता रहा। स्ट्सबर्ग में वह नाटक अभी भी दिखाया जा रहा है। उन्होंने उस नाटक की चंद तस्वीरें भी दिखाईं। ये तस्वीरें किसी पत्रिका में छपी थीं। मंच पर एक फ्रांसीसी लडकी साडी पहने हए, हालाँकि साड़ी ठीक ढंग से नहीं पहनी गई थी। वह लड़की तसलीमा की भूमिका में थी। नाटक फ्रांसीसी भाषा में लिखा गया था। वैसे मैं वह नाटक अगर देखती भी, तो मेरे पल्ले कुछ भी पड़ने वाला नहीं था। मिशेल इडेल और एक झुंड पत्रकार, पिछले दो दिनों से मेरे, हेलेन सिक्सूस और अनिता देसाई के पीछे-पीछे घम रहे थे और तीनों की बातचीत टेप-बंद कर रहे थे। हेलेन सिक्यूस, एन्तोनिएत फुक की दोस्त थी। फुक की वजह से ही मिशेल इडेल की दोस्त! इधर सिक्सस जैक दारीदा की भी दोस्त थी। दारीदा की तरह ही उसका भी जन्म अल्जीरिया में हुआ था। जब अल्जीरिया फ्रांस की कॉलोनी था। ये दोनों ही लोग यहूदी हैं। दोनों ही दार्शनिक। दोनों ही उत्तर-आधुनिक! हम तीनों से एक ही किस्म का सवाल किया जा रहा था और हम सब जवाब देते जा रहे थे। साहित्य और समाज को बदलने के लिए दो-दो विप्लव एक साथ करना ज़रूरी है या नहीं? नारीवाद के बारे में बातें करने के लिए साहित्य की ज़रूरत है या नहीं? साहित्य के जरिए क्या सचमुच किसी परिवर्तन की ज़रूरत है? धर्म के बारे में आपकी क्या राय है? धर्म क्या वाकई औरत की आज़ादी की राह में बाधा है? ऐसे ही ढेरों सवाल! हम तीनों के जवाब से जो वात वाहर आई, वह यह कि हम तीनों ही औरत की निरंकुश आज़ादी में विश्वास करती हैं। वैसे अनिता देसाई ज़रा नरम-दिल है। हेलेन सिक्यूस उतनी नरम नहीं है और मैं बेहद कड़क! सबसे ज़्यादा समझौताहीन! मुझे यह कतई अंदेशा नहीं था कि पश्चिम में भी मुझे वही सब नाम मिलेगा, जो अपने देश में मिला करता था-उग्र! रैडिकल!

मैं पोर्तुगीज़ लोगों को जानती हूँ। पोर्तुगीज़ ही पहले यूरोपीय नाविक थे, जो लोग भारत आए और यहाँ वस गए! लेकिन पोर्तुगीज़ लोगों का एक देश भी है, जिसका नाम पोर्तुगाल है, यह बात मैं भूल ही वैठी थी! लिसवॉन में घूमते-सैर करते हुए पोर्तुगाली नाविकों का वह देश भी देख डाला। मैंने वास्को-डि-गामा का देश देखा! उसकी डिस्कवरी मोनूमेंट! उसकी कब्र! मैं चुपचाप लिसबॉन बंदरगाह पर आकर खड़ी हो गई, जहाँ से वास्को-डि-गामा के नेतृत्व में सन् चौदह सौ सत्तानबे की आठ जुलाइ का एक जहाज छूटा था आर जी जहाज दक्षिणी अफ्राका के उत्तमाशा अन्तरीय पार करके मोज़ाम्बिक द्वीप लाँघकर, मोमबासा से और उसके बाद मालिन्दी से गुज़रकर सन् सौदह सौ अट्ठानबे की अठारह मई को भारत के मालाबार तट का दर्शक बना! इसके तीन दिन बाद वह जहाज कालीकट आ पहुँचा।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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