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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मेरे आस-पास की भीड़ और पुलिस का घेरा चीरकर वे जो कहना चाहते थे, आखिरकार उन्होंने कह ही डाला।

“आपके लिए हमने काफी आंदोलन किया था; सड़कों पर उतर आए थे! पर्चियाँ निकाली, लोगों में बाँटा...।"

मैंने उनकी तरफ सिर उठाकर देखा! उस इंसान के सिर पर घंने श्वेत बाल! दीर्घ, स्वस्थ शरीर! लेकिन उसके चेहरे पर ऐसा कुछ नहीं था, जिस पर नज़र जाए। किसी भी अधेड़ व्यक्ति जैसा, उसका चेहरा! वह फ्रांसीसी है या पोर्तुगीज़, मुझे अंदाज़ा नहीं लग पाया। उसके साथ चलते-चलते ही बातचीत होती रही।

“कहाँ?” मैंने पूछा।

“फ्रांस में!" उस सज्जन ने जवाब दिया।

"ओ।"

उस सज्जन ने मुझे एक पर्ची पकड़ा दी। उस पर्ची पर अनगिनत लोगों के नाम थे। ऐसे ढेरों नाम, जिन्हें मैं पहचानती तक नहीं!

"इस पर्ची में क्या आपका भी नाम है?” मैंने पूछा।

“जी हाँ, है।" उन्होंने सिर हिलाकर जवाब दिया।

“अच्छा? आपका नाम क्या है?"

“मेरा नाम जैक दारीदा है।" बेहद विनीत जवाब मिला।

"आप जैक दारीदा हैं, पल भर में मेरे तन-बदन में पुलक जाग उठा, “आपकी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं। मैं आपका वेहद सम्मान करती हूँ। आप लोगों ने मेरे लिए इतना-इतना आंदोलन किया..."

जैक के होठों पर विनम्र हँसी खिल उठी।

मेरे हाथ में फ्रांसीसी पर्ची थी। पश्चिम के बड़े-बड़े लेखक, बुद्धिजीवी एक क्षद्र-से देश की क्षद्र-सी लेखिका के लिए सड़क पर उतर आए थे। ये सभी लोग कितने गज़ब के विश्वसनीय और सच्चे हैं!

सुरक्षा अधिकारी, पत्रकार, अनुरागी भक्त, मुझे घेरे हुए! उधर इतने महान् जैक दारीदा अकेले-अकेले चले जा रहे थे। उन्हें किसी ने भी घर नहीं रखा था। अपने चारों तरफ की यह भीड़, अब मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही है। यह सारा कुछ मुझे चरम अपमान के अलावा और कुछ भी नहीं लग रहा है।

कार्यक्रम में सवने अपनी-अपनी भाषा में अपना वक्तव्य रखा। सभी भाषाओं के लिए अनुवाद का भी इंतज़ाम था। एकमात्र मैंने ही परायी भाषा में वक्तव्य रखा। वक्तव्य लिखा हुआ था। विदेश में हर कार्यक्रम में सभी के वक्तव्य लिखे हुए होते हैं। कोई भी हमारे देश की तरह खाली हाथ मंच पर कदम नहीं रखता। माइक के सामने खड़ा नहीं होता और वाचाल वकवकवाज़ की तरह जैसी खुशी, जितनी खुशी, धाराप्रवाह बोलता नहीं रहता। यहाँ अपना वक्तव्य सोच-समझकर, व्यवस्थित ढंग से लिखकर लाना पड़ता है। हर वक्ता के लिए समय निर्धारित होता है-इक्कीस मिनट या पैंतीस मिनट। वक्त का हिसाव लगाकर वक्ता, अपना वक्तव्य पहले से ही सजा लेते हैं। मैंने गौर किया, बक्तागण, काफी देर तक मेरे बारे में ही वोलते रहे। गैवी मेरी बगल में ही बैठा था। गैवी भी मेरे प्रसंग में हो वोला। बार-बार मेरा नाम लिया जा रहा था, इसलिए मुझे अंदाजा हो सका। उसकी भापा मेरी समझ में नहीं आई, लेकिन मुझे अंदाज़ा हो गया कि उसने कैसे मेरा गुरु-दायित्व सम्हाल रखा है, इस बारे में, अपनी बुद्धि का मिठास घोलकर वह इसी का गीत गा रहा था।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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