जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
एक रात मैंने यूजीन के बड़े भाई के घर में गुज़ारी। उस दिन उसके भाई-भौजाई कोई भी घर पर नहीं था। घर विल्कुल खाली पड़ा था। काठ का विशाल मकान! स्वीडन, नॉर्वे में घर-मकान लकड़ी के ही होते हैं। यहाँ इतने-इतने पेड़! इतनी-इतनी लकड़ी! इसलिए काठ ही सस्ता पड़ता है। यहाँ ईंटों का घर-मकान बनाने का प्रचलन नहीं है। पुराने घर या तो काठ के होते हैं या पत्थर के।
अचानक यूजीन ने बताया कि उसके घर में एक दिन गुज़ार कर हमें स्टॉकहोम के लिए रवाना होना है।
"क्यों? यहाँ मैं तीन दिन और भी तो रह सकती हूँ! यहाँ से मैं सीधे लिसवॉन चली जाऊँगी।"
यूजीन ने इशारे-इशारे में बताने की कोशिश की कि यह संभव नहीं है।
उसने उस घर में एक रात ठहरने का इन्तज़ाम कर दिया और कहा, "नहीं, कल ही चलना होगा! यहाँ तीन दिन ठहरने का इन्तज़ाम नहीं हो पाएगा।"
"क्यों? हो क्यों नहीं पाएगा?"
मुझे बेहद गुस्सा आने लगा। मेरा सारा गुस्सा गैवी पर जा पड़ा। लिसबॉन जाने की टिकट गैवी के हाथ में थी। मुझे नॉर्वे से पुर्तगाल जाने देने का उसका इरादा नहीं था। यूजीन तो गैबी के महज 'आदेश' का पालन कर रहा था। मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वीडन लौट आना पड़ा। उस द्वीप के दीपहीन जीवन में दुवारा लौट आना पड़ा।
इसके बाद मुझे सात-आठ बार नॉर्वे जाना पड़ा। ट्रेन्डहेइम विश्वविद्यालय में मानवाधिकार के बारे में मुझे भाषण देना था। नॉर्वे के नारीवादी संगठन के आमंत्रण पर, नोवेल कमेटी में भी भाषण देने गई, जहाँ से नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाता है। एक बार फिर नॉर्वे के धर्ममुक्त मानववादी संगठन के आमंत्रण पर वहाँ जाना पड़ा। उस बार ही मानववादी लोगों ने अपने वक्तव्य में यह बात उजागर की कि मेरे लिए तो नॉर्वे में ही रहने की बात तय हुई थी। नॉर्वे के लेखक संगठन और मानववादी संगठन द्वारा दवाव डालने पर नॉर्वे सरकार ने मुझे बांग्लादेश से निकाल लाने की कोशिश की थी। नॉर्वे की संपत्ति को अचानक स्वीडन कैसे झटक ले गया?
नॉर्वे के मानववादी संगठन ने मुझे 'ह्युमैन एटिस्क फॉरवुण्ड', मानववादी पुस्कार प्रदान किया। लेवी फ्रागल मानववादी संस्था के प्रधान हैं। कभी ये पुरोहित थे। पुरोहित-विद्या की लिखाई-पढ़ाई करते हुए धर्म के प्रति अविश्वास जाग उठा। धर्महीन मानववादी इस संस्था के साठ हज़ार सदस्य हैं। ये सभी लोग चाहते हैं कि देश के साथ धर्म का कोई रिश्ता न हो। वे लोग समाज में उत्पातहीन, स्वस्थ सुंदर व्यवस्था के पक्षधर हैं! यह समाज इंसान को धर्ममुक्त, सुसंगत और विज्ञानवेत्ता बनाने के लिए आंदोलन कर रहा है। इस दल से मेरी दोस्ती बढ़ती गई। मुक्तिवादियों के साथ मेरी दोस्ती बढ़ते रहने का यह नतीजा हुआ कि नॉर्वे से एक कलाकार आया, जिसने जियोर्दोना ब्रूनो की पेंटिंग के अनुरूप अपनी रंग-तूलि से चार फुट बाई तीन फुट पेंटिंग का एक रिप्रोडक्शन तैयार किया था। वह उस पेंटिंग पर मेरा हस्ताक्षर कराने आया था। यह उसी ब्रूनो की पेंटिंग का रिप्रोडक्शन था, जिसे रोम के धार्मिक लोगों ने कभी जलाकर मार डाला था। उस कलाकार का प्रधान उद्देश्य था, नॉर्वे के पुस्तक-मेला में तस्वीरें और हस्ताक्षर बेचना, लेकिन ब्रूनो को और मुझे एक ही कैनवास पर रखने के लिए मैं क्या गौरव महसूस नहीं करती? मेरा जीवन क्या सार्थक नहीं हो गया? हाँ, कोई-कोई मेरी तरह इसे गौरव का प्रतीक मानते हैं!
बहुत-बहुत तो हुआ! पैरिस, स्ट्रेसबुर्ग, मारसेइ, नानते में, मुग्ध लोगों की भीड़ ने लगातार तालियाँ बजाईं। सिर पर बार-बार मुकुट पहनाया गया। रेड कार्पेट' अभिनन्दन किया गया। जूरिख, बर्न, बारसेलोना में काफी सम्मान दिया गया। राजा-मंत्रियों से भेंट-मुलाकात, सोने का मेडल, गोल्डेन किताब पर हस्ताक्षर-काफी कुछ हुआ! ट्रेन्डहेइम, स्टावांगर, ऑस्लो, स्टॉकहोम, गोथेमवर्ग में जितने भी फूल खिले थे, सबकी खुशबू मुझ तक पहुँचती रही। हरकारे, प्यादे और पारंपरिक दासों के साथ हेलसिंकी, प्राग, कार्लोभी वेरी वगैरह की खूब-खूब सैर-तफरीह भी हुई; काफी हलचल, काफी हो-हुल्लड़ भी मचा। नगर की चावी, भेंट-उपहार भी मिला। लेकिन, अव मैं घर लौगी, निखिल'दा!
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ