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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


स्टावांगर से मैं ऑस्लो लौट आई, वांगर की पुलिस उड़कर ऑस्लो आई और वहाँ की पुलिस के हाथों में सौंपकर लौट गई, लेकिन कैसा अजीव कांड है! इस वार भी मैंने बहुत-बहुत मिन्नतें कीं कि इसका कोई तुक नहीं है! निहायत बेतुकी बात है यह! इसके बावजूद सुरक्षा का सर्कस मुझे अजीब शर्मिन्दगी में डालता रहा। स्टावांगर के कार्यक्रम में पुलिस-पहरेदारी की वजह से मुझे शर्मिन्दगी होती रही। कई-कई बार कार्यक्रम सुने बिना ही, मैं वहाँ से हट गई। इधर-उधर बस, घूमती-भटकती रही।

ऑस्लो पहुँचते ही यूजीन मुझे अपनी माँ से मिलाने के लिए अपने घर ले गया। तिरानवे वर्ष की उम्र में उसकी माँ इस मकान में अकेली ही रहती हैं। घर में कोई नौकर-चाकर भी नहीं है। वे खुद चल-फिर भी नहीं सकतीं। एक ट्रॉली के सहारे वे काफी धीरे-धीरे चलती हैं। इसी तरह चलते-फिरते वे रसोई-पानी भी निवटाती हैं, घर-द्वार की साफ़-सफ़ाई करती हैं। मैं हतप्रभ-सी खड़ी रही।

"हैरत है, यूजीन! तुमने अपनी माँ को इस हाल में क्यों रखा है? उन्हें ज़रूर बेहद तकलीफ रही होगी। तम्हारे कोई भाई-बहन उनके साथ क्यों नहीं रहते? या इन्हें ही उन लोगों के घर ले जाकर क्यों नहीं रखते?"

मेरा सवाल सुनकर यूजीन सकपका गया।

उसने अटक-अटककर जवाव दिया, "इस तरह से किसी के सिर पर सवार होने, रहन-सहने का यहाँ नियम नहीं है। हाँ, मेरे बड़े भाई कभी-कभार इन्हें देखने आते हैं।"

"कभी-कभार?"

"हाँ! क्रिसमस के मौके पर वे ज़रूर ही मिलने आते हैं।"

"यह कैसी बात?"

"भई, ले जाना चाहें भी तो मेरी माँ क्या जाने को राजी होंगी? माँ कहीं नहीं जाएँगी।”

"लेकिन ये तो चलने-फिरने में भी लाचार हैं। इनके लिए सौदा-सुलुफ कौन लाता है?"

“वे ट्रॉली धकियाते हुए अकेले-अकेले खुद ही बाज़ार जाती हैं। जब बिल्कुल ही लाचार हो जाएँगी तो सरकार की तरफ से उनका हाथ बँटाने वाला कोई आदमी दिया जाएगा। अगर उन्होंने विल्कुल विस्तर ही पकड़ लिया तो यहाँ वृद्धाश्रम मौजूद है। वहाँ इलाज का भी इंतज़ाम है। सरकार ही उन्हें सरकारी आवास में ले जाएगी।"

यूजीन ने अपनी माँ के कान से मुँह सटाकर ऊँची आवाज़ में बताया, “यह तसलीमा है! बांग्लादेश की लेखिका! यहाँ साहित्य-सम्मेलन में आई है।"

माँ ने पता नहीं क्या समझा! उन्होंने सिर हिला दिया। वे मंद-मंद मुस्करा उठीं। मुझे बैठने को कहा। मैं कॉफी पीना चाहँगी या नहीं, यह भी पूछा।

मैंने सिर हिलाकर मना कर दिया, "नहीं! मैं कॉफी नहीं पीती।"

मैं कमरे में घूम-घूमकर दीवार पर टँगी तस्वीरें देखने लगी। यूजीन ही मुझे बताता रहा कि कौन-सी तस्वीर में कौन-कौन है। यह नज़ारा मैंने स्वीडन के घरों में देखा है। कोई अकेला रहता है, कहीं-कहीं दो लोग रहते हैं, लेकिन दीवारों पर उनके नाते-रिश्तेदारों की ढेरों तस्वीरें झूलती हुईं! यहाँ शायद यही रिवाज है। अपने स्वजन से न कोई बातचीत है, न भेंट-मुलाकात, अपने खून के रिश्तों को देखने के लिए, तुम दीवार तक जाओ, दरवाजे तक नहीं क्योंकि दरवाज़े पर कभी कोई दस्तक नहीं होगी। दीवार पर टॅगी हुई तस्वीरों पर जमी धूल, तुम शायद महीने में तीन-चार वार पोंछते हो, लेकिन वह व्यक्ति अगर सचमुच तुम्हारे सामने आ खड़ा हो तो तुम उसे कॉफी को भी नहीं पूछोगे। यूजीन और उसकी माँ को देखकर मैंने उनके आपसी रिश्ते को समझने की कोशिश की। मैंने यह अंदाजा लगाने की कोशिश की कि उन दोनों के आपसी रिश्ते में अव वाकई कोई प्यार है या नहीं!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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