जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
सम्मेलन में मुझे अंग्रेजी में लिखा हुआ, अपना ही एक वक्तव्य पढ़ना पड़ा। यही एक मुश्किल आन पड़ी है। बिल्कुल अलग-सी भाषा! अपने बत्तीससाला दैनिक जीवन में जो भाषा मैंने कभी इस्तेमाल नहीं की, वही भाषा अब मेरे जीवनयापन की एकमात्र भाषा बन गई है। थोरवाल्ड स्टिन, नॉर्वे के लेखक संगठन के सभापति हैं। वे खुद भी कवि हैं। विकलांग हैं। लेकिन विकलांग होने के बावजूद उन्होंने कितना विराट साहित्य-आयोजन किया था। साहित्य-सम्मेलन होटल एटलांटिक में ही आयोजित किया गया है। वहीं मेरे ठहरने का भी इंतज़ाम किया गया है। मुझे देखते ही चारों तरफ से भीड़ उमड़ पड़ती है। इस कदर दृष्टि-आकर्षण की वस्तु वनना, मुझे विल्कुल पसंद नहीं है। मैं तो गम होना चाहती हैं, बिल्कल गम हो जाना चाहती हैं। लोगों की नज़रों की ओट खोजती हूँ। इससे कहीं दूर जाने के लिए छटपटा उठती हूँ। अकेले-अकेले ही निकल पड़ती हूँ। नॉर्वे का एक फोटो पत्रकार काफी देर से एटलांटिक के तट पर मेरी तस्वीरें लेने के लिए आरजू-मिन्नतें कर रहा था, किए ही जा रहा था, वापस लौटने का नाम ही नहीं ले रहा था, हालाँकि उसे कई बार लौटा दिया गया था। वह जोंक की तरह चिपका हुआ था। आखिर किसी पल मेरा मन नरम हो आया। उसे साथ लेकर मैं निकल पड़ी। ऐसा मैंने एटलांटिक के लोभ में किया। बाकी सभी लोगों की फर्माइशें छाँटकर, उस आदमी की फर्माइश पूरी करने को गुपचुप राज़ी हो गई। वह आदमी तो वाग-बाग़ हो उठा और मैं बाग-बाग हो उठी, एटलांटिक सागर का सौंदर्य देखकर! एटलांटिक के तट पर मैं पहली बार खड़ी हुई थी। उसके जल में पहली बार अपने पाँव भिगो रही थी। मन भिगो रही थी। प्रकृति के इस अपरूप रूप का आनन्द लूँ या दिन-भर पत्रकारों के हज़ारों सवालों का जवाब दूं? मैंने इन दोनों में से सौंदर्य-पान ही चुन लिया। मुझे पत्रकारों का यूँ घेरे रहना, अभागों की तरह टुकुर-टुकुर ताकते रहना असहनीय लगता है। अपनी मन-मर्जी के मुताविक 'उदासी हवा' में, मैं पैदल घूमी फिरी। पुलिस की फौज को यह जानकारी देना ही काफी था कि मैं आज सैर पर निकलँगी। वे लोग परम उत्साह से मेरे साथ निकल पड़े। अगर मैं बाहर न निकलती तो उन्हें कम मशक्कत करनी पड़ती, ऐसा नहीं था। उन लोगों को मेरे दरवाज़े पर एक टाँग पर खड़े रहना पड़ता। मुझे शौक चढ़ा कि गाँव-देहात की सैर की जाए। पुलिस की पाँच वैन मुझे लेकर गाँव की तरफ चल पड़ीं। कैसे अपूर्व सुन्दर घर-मकान! अनन्त हरीतिमा में घिरे हुए मुझ में यहाँ के किसानों की हालत जानने की उत्सुकता जाग उठी। किसान का ज़िक्र आते ही मेरे मन में किसी दीन-दुःखी, दुबले-पतले बदहाल, मोहताज चेहरे का ख़याल उभरता है, लेकिन यहाँ के किसान ऐसे बिल्कुल नहीं थे। हर किसान धनी था और उसके पास चमचमाते हुए बड़े-बड़े घर-मकान थे। घरों के सामने खड़ी दो-एक गाड़ियाँ ! सामने लंबे-चौड़े खेत! खेत के पार खलिहान! सभी किसान ट्रेक्टर इस्तेमाल करते हैं। हर काम के लिए मशीनों का इस्तेमाल! चूंकि यह शीत-प्रदेश है, इसलिए यहाँ के लोग ज़्यादा कुछ नहीं उगा पाते। यहाँ जो कुछ फलता-फूलता है, वह गर्मी के मौसम में ही, उन लोगों की एक बात सुनकर मैं अचम्भे में पड़ गई। फसल न उगाने के लिए इन लोगों को सककार की तरफ से रुपए मिलते हैं। ज्यादा दूध न दूहने के लिए गौशाला-मालिकों को भी धनराशि मिलती है। फर्ज़ करें, फसल उगाने से दस लाख रुपयों की आय होती। सरकार का प्रस्ताव है कि दस लाख रुपयों का उपार्जन मत करो, हम तुम्हें बीस लाख देंगे। इन लोगों को हर साल तिगुने रुपए मिलते हैं और ये लोग निकम्मे वैठे रहते हैं। यह खुशहाली, सिर्फ नॉर्वे में ही नहीं है, बल्कि पश्चिमी यूरोप के सभी देशों में है। किसानों को फसल न उगाने के लिए सरकार से धनराशि मिलती है। फसल उगाने में जो ख़र्च पड़ता है, न उगाने के लिए देश-विदेशों से ये चीजें आयात करके उतने ही परिमाण में फसल खरीदने पर खर्च कम आता है। इसलिए... ।
सम्मेलन ख़त्म होने के दिन बड़े थियेटर-हॉल में रात को सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। मेरा कविता-पाठ और लैप संगीत! गहरे नीले, गहरे लाल और गहरे पीले रंग की पोशाक पहने एक औरत ने गाना गाया। सीने में छिपा दर्द, गीतों के रूप में गूंज उठा। गाने के बोल तो समझ में नहीं आए मगर सुर ही दिल को छूने के लिए काफी था। इन गीतों को 'येइक' कहा जाता है। वैसे 'लैप्स' लोग अब, अपने को 'लैप्स' कहलाना पसंद नहीं करते। वे लोग अपने को ‘सामी' कहते हैं और उन लोगों ने अपनी भाषा को 'सामी' भाषा नाम दिया है। शिकार करना, मछली पकडना. शिकारी हिरनों के पीछे दौडना ही उन लोगों का पेशा है। यरोप में ये सामी लोग ही बहुसंख्यक आदिवासी हैं। नॉर्वे के लैपलैंड में ही सर्वाधिक संख्या में 'सामी' लोग निवास करते हैं। ये लोग एक निर्धारित तरीके से अपने तम्बू गाड़ते हैं। मिट्टी पर गोलाकर बाँस गाड़कर ऊपरी सिरे को आपस में जोड़ देते हैं। उसके बाद बाँस का पूरा ढाँचा जानवरों के चमड़े से ढक देते हैं। चमड़े के टुकड़े सिलाई करके एक-दूसरे से जोड़ दिए जाते हैं। कमरे के बीचोंबीच आग जलाकर किनारे-किनारे गोलाकार घेरा बनाकर, घास के बिस्तर पर सोते हैं। बेहद सीधा-सादा जीवन! जीव-जन्तुओं के रोएँ से अपने कपड़े तैयार करते हैं। इनका काम शिकारी हिरणों को दौड़ाना है। 'सामी' लोग सिर्फ नॉर्वे के उत्तर में ही नहीं, स्वीडन, फिनलैंड, रूस के उत्तरांचल में भी निवास करते हैं। उस जगह का नाम होता है-लैपलैंड! ये 'सामी' लोग किसी ज़माने में समूचे देश में छाए हुए थे। उस ज़माने में सिर्फ 'सामी' लोग ही विद्यमान थे, लेकिन लोगों की घुसपैठ के जरिए, उन लोगों को खदेड़ते-खदेड़ते दक्षिण से उत्तर की तरफ ढूंस दिया है। उनके देश-भुंई पर अब बाहर से आए हुए गोरों ने अपनी बस्तियाँ बसा ली हैं। अब ये आदिवासी 'सामी' चार हिस्सों में बँटकर, उत्तरी छोर पर रहने-सहने लगे हैं। 'सामी' लोगों को अपने-अपने देशों में अल्पसंख्यक बना दिया गया है। काफी कुछ अमेरिका की तरह! यूरोपीय लोग वहाँ पहुँचे और अमेरिका के आदिवासियों का खून करके उन लोगों का वंश ही समाप्तप्राय कर डाला। जो चंद आदिवासी बच रहे, उन लोगों को खदेड़ते-खदेड़ते कुल दो-एक जगह कैद कर दिया। उस जगह को नाम दिया है-रिजर्वेशन! ऑस्ट्रेलिया में भी यही आलम है। गोरी चमड़ी वाले अपने को उच्च वर्ग का मानते थे या आज भी मानते हैं, यह बात इन हरकतों में बिल्कुल स्पष्ट है।
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