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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


स्वीडन की संसद में पचास प्रतिशत औरतें हैं। मैंने देखा है, यहाँ चारों तरफ औरतें-ही-औरतें हैं। सड़कों पर चलती-फिरती हुई! साइकिल वा गाड़ी चलाती हुई! वसों में सवार! कैफे में, रेस्तराँ में, घास में, सीढ़ियों पर! अपने प्रेमी के हाथ में हाथ डाले घूमती हुई! दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हुए! हज़ारों लोगों की भीड़ में एक-दूसरे को चूमते हुए! इन पूर्वी देशों में कुछेक वातें साफ़ नज़र आती हैं। जवान औरतें नितंब-छूती स्कर्ट पहने घूमती हैं, वक्ष उघाड़े हुए चलती हैं। सड़कों पर मर्द-औरत के जोड़े नज़र आते हैं, वच्चे मर्दो की गोद में होते हैं या पैरांवुलेटर धकिया रहे होते हैं। घर के अन्दर भी मर्द खाना पका रहे हैं, थाली-वर्तन माँज-धो रहे हैं। ये सव दृश्य देखकर आँखें जुड़ा जाती हैं। यानी यहाँ के समाज में औरतें गुलामी की जंजीर में जकड़ी हुई नहीं हैं। मैं भी तो ऐसे ही समाज के सपने देखती हूँ। पश्चिमी समाज के बारे में लगभग किसी भी जानकारी के बिना ही मैं जो नारी-स्वाधीनता, औरत-मर्द के समानाधिकार के बारे में जो कुछ भी लिख रही थी, वह समानाधिकार तो यहाँ है, इसी स्वीडन में! जिस देश में मैं किसी हाल भी मन नहीं लगा पा रही हूँ, तालमेल नहीं विठा पा रही हूँ, रह-रहकर मेरा दम घुटने लगता है, वराबरी का हक़ तो यहाँ मौजूद है। घर-गृहस्थी के काम-काज के बारे में, बच्चों के लालन-पालन के बारे में, मैं इयान से ही खोद-खोदकर पूछती रही। इयान ने बताया कि संतान के जन्म से पहले, उसे पिता होने के लिए छुट्टी मिली थी। यह छुट्टी संतान जन्म के समय हर पिता को मिलती है। यहाँ यही नियम है। औरतों के लिए भी तीन महीने की छुट्टी और मर्दो के लिए तीन महीने की फुर्सत! संतान के लालन-पालन का दायित्व दोनों प्राणियों पर बराबर-बराबर होता है।

"तुम लोग क्या सिर्फ बेटा होने पर ही खुश होते हो, बेटी होने पर नहीं? क्या ऐसा भी कोई नियम है?"

इयान ने ठहाका लगाते हुए सिर हिलाकर जवाव दिया, "बिल्कुल भी नहीं! हम बस, यही चाहते है कि बच्चा स्वस्थ हो।"

लिलियाना के घर के लॉन पर मैं खाली पाँव टहल रही थी। सेव के पेड़ों पर सेब झूलते हुए! खाने वाला कोई नहीं! सेव गिर-गिरकर, समूचा लॉन लाल हो उठा था। मैंने एक सेव उठाकर उस पर दाँत गड़ा दिए। इतने फल नष्ट होते देखकर मुझे अफसोस हो आया।

"इतने-इतने फल हैं, अगर खुद नहीं खा सकते तो दूसरों में बाँट क्यों नहीं देते?'' मैंने पूछा।

"कोई कबूल नहीं करेगा। सेब के पेड़ प्रायः सभी के घर में मौजूद हैं। जो लोग शहरों में रहते हैं, एपार्टमेंट में वसते हैं, जिनके पास फलों के पेड़ नहीं हैं, वे लोग ख़रीदकर ही खाना पसंद करते हैं। यहाँ सेव काफी सस्ता जो है। सेव के बजाय अगर कंले दें या अनार, उछलकर ले लेंगे। ये फल यहाँ पैदा नहीं होते।"

"यह जो कभी-कभी हरी-हरी सब्जियाँ मिलती हैं, व सव कहाँ से आती हैं?"

बाहरी देशों से आती हैं। दूसरे देशों से आई हुई साग-सब्जियाँ सस्ते दामों में खरीदी जाती हैं। दूसरे देशों का मतलब है, स्वीडन के मुकाबले दरिद्र देश! वैसे इस देश में कुछ भी पैदा नहीं होता, ऐसा भी नहीं है। ग्रीन हाउस में साग-सब्जियाँ, फलों-फूलों की खेती होती है।"

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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