जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
अन्य लोगों से ज़्यादा पुलिस से ही मेरी भेंट-मुलाक़ात अक्सर होती रहती है! उन्हीं लोगों से ज़्यादा वातचीत होती है। द्वीप से अक्सर ही स्टॉकहोम आना-जाना होता है। यह मेरी इच्छा से नहीं होता, गैवी की इच्छा से होता है। वह सीधे-सीधे पुलिस को संदेश भेज देता है कि मुझे किस स्वर्ग या नर्क में ले जाना है जिसको लेकर इतना कुछ हो रहा है, उसे वहद मामूली-सी जानकारी दी जाती है। मसलन मिस्टर या मिस एक्स-बाइ-जेड से मेरी भेंट होने वाली है, इतने वजे! उसका परिचय यह है। मरे अभिभावक और सुरक्षाकर्मी का भी यही ख़याल है कि मुझे इन सबकी जानकारी न भी हो तो चलेगा। सुरक्षा-सतर्कता इतनी त्रुटिहीन कि मुझे कोई जानकारी नहीं दी जाती। लेकिन बीच-बीच में जो थोड़ा-बहुत जानती या देखती हूँ, वह मुझे भयंकर परेशान करती है। फर्ज़ करें, मुझे कल्चरल हाउस जाना है। स्टॉकहोम के पुलिस कार्यालय में इसकी सूचना पहले से ही दे दी जाती है। इसके एक दिन पहले से ही कल्चरल हाउस में तलाशी अभियान शुरू हो जाता है। फर्ज़ करें, दिन के दस बजे मैं वहाँ क़दम रसूंगी। सुबह से ही वहाँ और लोगों के लिए प्रवेशनिपेध हो जाता है। उस हाउस के सामने-पिछवाड़े किसी को भी खड़ा नहीं होने दिया जाता। अगर उन लोगों का वश चले तो सामने की सड़क पर गाड़ी-सवारी-मुसाफिर, किसी के भी आने-जाने पर रोक लगा दें। काफी लंबा-चौड़ा कांड! राहगीरों की तकलीफों का अंत नहीं होता। छोड़ दे, मइयो, रो लूँ तो जान वचे-मैं विरोध में हर वार ही मुँह छिपा लेती हूँ! किसके सामने विरोध करूँ? किसके सामने चीख-पुकार मचाकर यह सव रोकने को कहूँ?
इसलिए अपने अंगरक्षकों के सामने ही अपने दुःख का टोकरा खोलकर बैठ जाती है, "यह सब सर्कस जो तुम लोग करते हो, मुझे बेहद शर्म आती है। इंसान को तकलीफ हो यह मैं विल्कुल नहीं चाहती! मेरे लिए औरों को तकलीफ क्यों दी जाए? उन लोगों ने क्या कसूर किया है? अब वे लोग मुझे प्यार नहीं करेंगे, देख लेना इन सव दुर्भोग के लिए मन-ही-मन मुझे ही गालियाँ देंगे।"
“अब क्या उपाय, बताओ! सुरक्षा के कई-कई चरण होते हैं! तुम्हें अव्वल नम्बर दिया गया है। यह सब तो चलता ही रहेगा।"
"इन सबकी मुझे कोई ज़रूरत नहीं है। तुम लोग इतने बुद्धिमान होकर भी यह वात क्यों नहीं समझते? इस किस्म की सुरक्षा, मुझे बांग्लादेश में चाहिए, यह बात तुम लोगों की अक्ल में क्यों नहीं आती? इस देश में इस सबकी कोई ज़रूरत नहीं है। सच पूछो, तो तुम लोगों की गाड़ी के अलावा मझे और किसी चीज की ज़रूरत नहीं है।"
पुलिस वालों ने साफ़ जवाब दे दिया, "तो फिर यही सब झेलती रहो। बाकी सब भी आँखें मूंदकर बर्दाश्त करो।"
पुलिस के आदमी ठहरे, लेकिन बहुतों में रसबोध मौजूद है। शुरू-शुरू में काफी गंभीर रहा करते थे, लेकिन धीरे-धीरे वह गंभीरता कट गई और अब रस मानो उमड़ा पड़ता है। राजनीतिज्ञ लोगों के साथ नहीं, लेखक-साहित्यकारों के साथ भी नहीं, मेरा अंतरंग रिश्ता इन पुलिस वालों के साथ गढ़ गया है। सुर्यन, लार्स, इयान, इयर्गन, पेर, रॉबिन, एलेक्जेंडर, टुमास, ऐन क्रिस्टीन ! महिला पुलिस एक ही है-एन क्रिस्टीन! उसे ऐन क्रिस्टीन के नाम से ही पुकारा जाता है। सूयान्तं की बीवी का नाम भी ऐन क्रिस्टीन है। क्यों ऐन क्यों नहीं? या क्रिस्टीन क्यों नहीं? ये दोनों नाम एक साथ क्यों पुकारे जाते हैं, मेरे मन में अक्सर सवाल उठता है। पूछने पर भी कोई भला-सा जवाब नहीं मिलता। यहाँ लोगों का नाम भी भला एक जैसा क्यों होता है? कुल मिलाकर दस-बीस नाम हैं। घुमा-फिराकर, वहीं-वही नाम रखे जाते हैं, यह सवाल भी मेरे मन में उठता है। इधर-उधर से जो जवाव मिलता है, वह यह कि मुख्य तौर पर वाइविल कंघालकर ही इंसानों के नाम रखे जाते हैं। मैं मानो आसमान से गिरी। सच पूछा जाए तो यूरोप से धर्म मानो उट ही गया है। सभी देश धर्मनिरपेक्ष हैं। यहाँ नाम रखने के लिए बाइबिल का सहारा लेने की क्या जरूरत है? उन लोगों के नाम का कोई अर्थ नहीं होता। नाम बस, नाम होते हैं।
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