जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
एक दिन मैंने टहलते-टहलते ही पूछ लिया, "डायना, तुम घर से बाहर इतना कम क्यों निकलती हो? और कुछ नहीं तो रोज़ मेरे पास ही आ सकती हो।"
डायना ने जवाब दिया, “मैं तुम्हें क्यों तंग करूँ? तुम्हारा वक्त काफी बेशकीमती है। तुम बेहद नामी-गिरामी इंसान हो! मैं ठहरी बेहद मामूली औरत! बेहद आम औरत।
मुझे तुम्हारा वक्त बर्वाद नहीं करना चाहिए।"
डायना को यह ख़वर ही नहीं है कि मैं पूरा दिन खाली-खूली वैठे रहने के अलावा और कुछ नहीं करती। लिखना ही मेरा काम है और मैं कुछ भी करती होऊँ, बस, लिखना ही नहीं हो पाता। मुझे घूमने-टहलने में भी चैन नहीं आता। इस द्वीप में टहलते हुए भी चार-पाँच पुलिस वाले मेरे पीछे-पीछे चलते रहते हैं। वे लोग ख़ामखाह ही तकलीफ उठा रहे हैं, यह सोचकर मुझे भी तकलीफ होती है।
में अफसोस जाहिर करते हुए कहती हूँ, “तुम लोग नाहक तकलीफ उठा रहे हो।"
वे लोग मुझे चुप करा देते हैं, "कोई तकलीफ नहीं हो रही है हमें!"
मैं उनसे बार-बार कहती हूँ, “तुम लोग जाओ, अपनी मर्जी-मुताविक घर जाकर आराम करो। खाओ-पीओ! गपशप करो-"
लेकिन कोई भी पुलिसवाला मेरी बात नहीं सुनता।
“ओफ्फो ! अब इस द्वीप में भला कोई मेरा खून करने क्यों आएगा? तुम लोगों को क्या यह विश्वास है कि इयुस्तेरो द्वीप में कोई आततायी क्या इस इंतज़ार में बैठा है कि वह कव मुझे जान से मार दे? तुम लोग तकलीफ मत करो। तुम लोग मेरे लिए तकलीफ उठाते हो, तो मुझे परेशानी होती है। जहाँ तुम्हें ख़तरे की आशंका हो, वस, वहीं मेरे साथ चला करो।"
"कौन कहता है कि ख़तरा नहीं है? कहीं कोई जगह सुरक्षित नहीं है। इस द्वीप में कोई खून नहीं करेगा, यह तुमसे किसने कहा? यहाँ आ भी तो सकता है।" पुलिस वाले ने कहा।
"तुम लोग क्या पागल हो गए हो? मुझे तो बांग्लादेश के मुल्लाओं ने मारना चाहा था। वे लोग क्या इस द्वीप में आएँगे? अरे, मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक! इयुस्तेरो द्वीप तक नहीं।"
"उनके हाथ क्या कभी लंबे नहीं हो सकते?"
"धत!"
मैंने उसकी बात हवा में उड़ा दी।
पुलिस वालों ने मुझे समझाया, उन लोगों के लिए मैं बेवजह परेशान न होऊँ। उन लोगों को इस द्वीप में रहना अच्छा ही लग रहा है। इसके अलावा इस वजह से उन्हें अतिरिक्त कमाई भी हो रही है। यह बात सुनकर मेरी परेशानी और बढ़ गयी। ऐसे भी उन लोगों के लिए एक पूरा मकान किराए पर लेना पड़ा है, ऊपर से पुलिस के लिए अतिरिक्त रुपए। मेरे लिए सरकार के मुट्ठी-मुट्ठी भर रुपए खर्च हों, यह मैं नहीं चाहती थी। पुलिस वाले मेरी बात सुनकर आहत हो आये।
"सुरक्षा तो हम किसी-न-किसी को दे ही रहे हैं, लेकिन सबके साथ काम करने में मज़ा नहीं आता। तुम्हारे साथ रहते हुए, हम बेहद खुश हैं, तुम राजनीतिक जीव नहीं हो। बढ़ा-चढ़ाकर बातें नहीं करनी पड़तीं। तुममें कहीं कोई झूठ नहीं है। तुम और तरह की हो। बेहद मानवीय हो तुम! बिल्कुल विशुद्ध और खरी।"
"सच्ची?"
''हाँ, सच्ची !"
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