लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मेरी नजरों के सामने अगर वह दिन न हो, जो दिन मैं चाहती हूँ तो मैं दिन कैसे पार करूँ? क्या करूँ? वह दिन कव आएगा, जव मैं जाने के दिन गिनने लगूंगी? अगर वह दिन गिनने का दिन न आए तो वे सारे दिन ठीक कैसे होते हैं, यह जानने-महसूस करने के लिए अगर कोई मेरी जगह न खड़ा हो, किसी दूर-दराज़ अनजान-अपरिचित द्वीप की निःशब्दता में एक के बाद एक ढेरों-ढेरों दिन न विताए तो विल्कल नहीं समझ सकता, समझना संभव ही नहीं है। यहाँ चारों तरफ जो कुछ भी है, यह द्वीप और वाल्टिक सागर, पुलिस और सुरक्षा, चिट्ठी-पत्तर, किताव-कॉपियाँ, डायना-अचानक-अचानक ये सब कुछ वेहद अर्थहीन और बेमतलव लगने लगता है। अपने अंदर भयंकर आर्तनाद सुनती रहती हूँ। वचाओ! वचाओ-अंदर ही अंदर छाती फटती और रुलाई उमड़ती रहती है। क्या कोई मुझे सुन पा रहा है! शायद पा रहा है।

स्वीडिश पेन क्लव के पते पर मेरे नाम काफी ख़त आते रहते हैं। गैवी वे सारे ख़त मेरे इस द्वीप के पते पर भेज देता है। यूरोप के विभिन्न देशों के लोग मेरा ऑटोग्राफ चाहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में छपी मेरी तस्वीर काट-काटकर मेरे दस्तखत के लिए भेजते हैं। साथ में टिकट लगा लिफाफा भी भेजते हैं, ताकि मेरे पैसे खर्च न हों। ये सभी लोग विदेशी हैं। सबके यूरोपीय नाम हैं। मुझे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं होता। यानी में भी यहाँ के आम लोगों में खासी लोकप्रिय है। यह सिर्फ जान बचाने का मामला नहीं है। जिन विदेशियों को कभी मैं विराट समझती थी, वही लोग मेरे सामने घुटनों के बल खड़े हैं, मेरी हिम्मत की मेरे सृजन की तारीफ कर रहे हैं, जी खोलकर मेरा अभिनंदन कर रहे हैं। मुझे नमस्य समझ रहे हैं। क्यों? मैंने क्या सच ही कोई महान काम कर डाला है? मैं तो जो थी, वही हूँ! मैं तो अपनी मर्जी-मुताविक चलती-फिरती, बोलती रही । मैं अपने ढंग से ख़ामोश रही, चीखी-चिल्लायी, रोयी और लिखती रही।

मैं किस ढंग से ज़िंदा हूँ, दुनिया के लोग नहीं जानते। उन लोगों को ख़बर नहीं है कि मैं किसी निर्जन द्वीप में अपने दिन गुज़ार रही हूँ, जागते हए रातें बिता
रही हूँ। उन लोगों को नहीं पता कि मैं दिन-दिन भर हाथ में कागज-क़लम लिए बैठी रहती हूँ और मुझसे ज्यों-त्यों करके एक जुमला भी नहीं लिखा जाता। न अंग्रेजी में, न वांग्ला में। दुनिया के अधिकांश लोग यही सोचते हैं कि स्वीडन धनी देश है। यहाँ की सरकार ने मुझे सतमहला घर दिया है। मैं राष्ट्रीय मान-सम्मान में डूवी हई हूँ। मैं जमकर लिख रही हूँ। द्वीप में वैट-बैठे ही मैं कलकत्ता, ढाका, मयमनसिंह फोन करती रही। मेरी समझ में नहीं आता था कि मैं क्या करूँ? आखिर कितने दिनों तक मैं इस द्वीप में पड़ी रहँगी? मेरे सामने कोई भविष्य नहीं था। खैर, भविष्य क्या कभी कोई दिन भी था?

मेरे अस्थिर और निर्जन समय में एक दिन पड़ोस के मकान में रहने वाली डायना मर लिए विल्कुल और ही तरह की शाम लंकर आयी। डावना के चेहरे का एक हिस्सा जला हुआ है। वह सुवह मुझे लेकर टहलने निकलती है। हम वन-जंगल, नदी किनारे टहलते रहे हैं। मेरी जिंदगी में यूँ टहलना कभी भी नहीं था! मेरे टहलने का एक उद्देश्य भी था, कहीं जाने का उद्देश्य! डायना मुझे टहलना सिखा रही है, उसके पीछे टहलने के अलावा और कोई उद्देश्य नहीं था। यूँ टहलते-टहलते हर वक्त वह मेरी ही बातें सुनना चाहती है। मैं जो भी कहती हूँ, जितना भी कहती हूँ, वह वेहद ध्यान से सुनती है ओर विस्यम-विमुग्ध निगाहों से एकटक मुझे देखती रहती है। वह और-और जानना चाहती है, लेकिन अपने बारे में कुछ कहने-सुनने के बजाय मेरे ही बारे में सुनने को उतावली रहती है। इस द्वीप वाले घर में वह अकेली ही रहती है। शहर में उसका कोई घर नहीं है। पति सऊदी अरव में नौकरी करता है। कभी-कभी आता है। उनके कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता था कि ऐसी भयंकर निर्जनता और सन्नाटे में इंसान यूँ अकेले रह कैसे पाता है? जहाँ मुझे हर वक्त, हर पल व्यस्त रहना चाहिए था, वहीं में टकटकी बाँधे वक्त पर नज़रें गड़ाए बैठी रहती हूँ कि वह वक्त आएगा, जब मैं डायना से मिलूँगी और कुछ वक्त गुजारूँगी। हालाँकि डायना कोई लेखक नहीं थी। वह वाहर कहीं कारोबार या काम-धंधा या नौकरी-चाकरी भी नहीं करती थी। खाली बैठे रहना ही जिसका एकमात्र काम था, उसी को जैसे वक्त नहीं मिलता। ऐसी निश्चलता, ऐसी जड़ता, इंसान कैसे मज़े से गुज़ार सकता है, मेरी समझ में नहीं आता। हाँ, कोई-कोई गुज़ार देता है। डायना आराम से गुज़ार देती है। मेरा तो दम घुटने लगता है। अपने घर में बैठी-बैठी वह कौन-सा तीर मारती रहती है, वही जाने। मैं उसके घर भी गयी हूँ। घर में कितावों और बिल्ली के अलावा कुछ भी नहीं धरा है! बिल्ली की दुर्गन्ध समूचे घर में फैली रहती है। उसके घर में मैं ज़्यादा देर तक टिक नहीं पाती।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book