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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


पुलिस वाले वेहद विनीत मुद्रा में मुझसे वार-वार कहते रहे, "डिनर के लिए, धन्यवाद !"

"यह डिनर कहाँ था? लंच था!"

लेकिन यही उन लोगों के लिए डिनर था। स्वीडन में रात का खाना, शाम होने से पहले ही, निबटा लिया जाता है! यहाँ आम तौर पर लोगों को दोपहर के खाने पर ही आमंत्रित किया जाता है। में सोचती रही. हम जिसे दोपहर के खाने यानी लंच का आमंत्रण समझते हैं, वह ता गपशप क वाद तीन-चार बजे मेज पर आने के लिए आवाज़ दी जाती है। मुझ जैसे इंसान, उसे लेट-लंच समझने की भूल कर सकते हैं या करते हैं, लेकिन असल में वह डिनर होता है! रात का भोजन वे लोग तो यही जानते हैं कि रात को खाना खाते ही एकदम सोने के लिए विस्तर पर चले जाते हैं और यह स्वास्थ्यसम्मत नहीं होता। सई-साँझ खा लेने से सोने जाने से पहले उठने-बैठने, लेटने-चलने में कुछ कैलोरी तो ख़र्च होती है।

हमारे देश में घर में मेहमान आते हैं, खाना खाते हैं-यह वेहद सीधी-सादी आम बात है! यहाँ ऐसा नहीं होता। यहाँ हर कोई, हर किसी को आमंत्रित नहीं करता। वेहद अंतरंग वंदा न हो तो उसे घर आकर खाने की दावत नहीं देते। ऐसी परिस्थिति में किसी स्टार के यहाँ कोई मामूली-सा सिपाही खाने पर आमंत्रित हो, उनके जत्थे में इस बात की कोई सपने में भी कल्पना नहीं करता। वे लोग जान भी गए और कहने भी लगे कि मेरा आचार-व्यवहार किसी स्टार जैसा बिल्कुल भी नहीं है! मैं वेहद दरियादिल इंसान हूँ, बेहद उदार और उन्हें अफसोस होता है कि मझ जैसी नरमदिल की हत्या के लिए इंसान कैसे एकजुट हो सकता है? मेरी जिंदगी में जो घटा, उन सब हादसों की कतई, कोई ज़रूरत नहीं थी!

रोनाल्डो, जो मेरी वगल में ही खड़ा था, बोल उठा, "हादसा हुआ, भला हुआ, तभी तो तुमसे परिचित होने का मौका मिला और तुम्हें सुरक्षा देने का मौका मिला।"

रोनाल्डो, बेहद सुडौल, सुदर्शन नौजवान पुलिसवाला! मेरा तो उससे प्रेम करने का मन होता है, लेकिन सिर्फ चाहनेभर से तो प्रेम होता नहीं। मेरी चाह का पता, भला रोनाल्डो को कैसे हो सकता है? मुमकिन है, यहाँ अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के अनगिनत तरीके हों, मुझे उन तरीकों की जानकारी नहीं है, अगर होती तो मैं अपना प्रेम जाहिर करने की जरूर कोशिश करती। हालाँकि मेरे अंदर की तर्कशील मैं कहती-हाँ, जाहिर कर दो, लेकिन मेरे ही अंदर की शर्मीली 'मैं' मुझे हिदायत देती- 'पाले रखो'। अपने अंदर की शर्मीली 'मैं' को मैंने अपनी जिंदगी से यथासंभव झाड़-पोंछकर विदा कर दिया है, लेकिन कुछ तो अभी भी बच रहा है, जिसे मैंने नाम दिया है-भद्रता, सभ्यता, रुचि, व्यक्तित्व!

रोनाल्डो अपने किराए के घर से चलकर अक्सर मेरे यहाँ फोन इस्तेमाल करने के लिए चला आता है। वैसे फोन करने से पहले वह मेरी अनुमति ले लेता है। वह सुदर्शन नौजवान फोन पर काफी देर-देर तक बातें करता है। किसके साथ बातें करता है? अपनी प्रेमिका से? यहाँ प्रायः हर मर्द की कोई-न-कोई प्रेमिका या बीवी ज़रूर होती है। बेहद कम ही मर्द या औरत यहाँ अकेले होते हैं। एक मेरा ही कोई नहीं है, कुछ नहीं है। अकेले-अकेले बेटे रहने के अलावा करने को कुछ भी नहीं है। अकेलापन मुझे नोच-नोचकर खाता रहता है। चूंकि अपने देश से अभी तक हरी झंडी नहीं मिली, इसलिए मन में दहशत होती रहती है। कट्टरवादी क्या थम गए? उनका असभ्य उन्माद ख़त्म हो गया? वहाँ कोई मुझे ये सारी ख़बरें देने की ज़रूरत तक महसूस नहीं कर रहा है? ज्यों-त्यों करके मानो मैं वहाँ से विदा हो गयी, देश वच गया। सारी खुराफ़ात और वर्वादी की जड़ में ही थी।

मैं मन-ही-मन उस द्वीप से प्रायः हर रोज ही अपने देश लौटती हूँ। वहाँ फिर कुछ हुआ? फिर कोई खवर? मैं अपने देश कव लादूँगी? नहीं, किसी तरफ से कोई आवाज़ नहीं, कोई खवर नहीं। मेरी साँसें अटकने लगी थीं, दम घुटा जा रहा था।

दिन गुज़रते रहे।

दिन वेवजह ही बीतते रहे।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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