जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
घर से आठ किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी-सी दुकान! उँगलियों पर गिन जाने लायक चंद वाशिंदे! इस द्वीप में, इसी छोटी-सी दुकान के आसरे-भरोसे जिंदा रहते हैं! दुकान में कच्ची-पक्की दोनों ही क़िस्म की चीजें होती हैं! फूलगोभी भी, सावन भी! पहली वार जव मैं उस दुकान पर गयी तो घूम-घूमकर सारी चीजें देखीं। उनमें से अधिकांश चीज़ों की मुझे जानकारी नहीं थी। कतार-दर-क़तार डिब्बे, बोतल, शीशियाँ! उनमें तरल, सख़्त चीजें! स्वीडिश भाषा में उन सब पर लेवल लगा हुआ! समझने का भला कोई उपाय था? कभी-कभी में पुलिस से ही पूछ लेती हूँ--यह क्या है? वह क्या है? मैंने गौर किया, खाने की अधिकांश चीजे मैंने पहले कभी नहीं खायी थीं। पर्त-दर-पर्त सूअर का मांस सजा हुआ! मैंने यह मांस कभी नहीं खाया था। हालांकि मैं धर्म नहीं मानती, कोई संस्कार नहीं मानती, इसके बावजूद सूअर के मांस से में दो क़दम पीछे हट आई। वह मांस मुझे नहीं खरीदना था। विल्कुल उसी तरह, जैसे जो सब्जियाँ मैंने पहले कभी नहीं चखी, वह सब खरीदने की मुझमें दिलचस्पी नहीं जागी। गाय के मांस की कीमत सभी अन्य मांस में सबसे ज़्यादा धी। गाय का मांस मुझे कभी भी प्रिय नहीं रहा। दाँतों में खटास का स्वाद रह जाता है। इसके अलावा उस दुकान में भेड़ का गोश्त मौजूद था। उस गोश्त की तरफ देखते ही, नाक में भेड़ के बदन की दुर्गन्ध समा गयी। इसके अलावा वहाँ मुर्गी भी थी। मुर्गी मैं पहचानती थी। मैंने तय किया कि एकाध मुर्गी तो ख़रीद ही लूँ। मैं चावल खोजती रही। चावल नहीं था, लेकिन चावल के बिना भात कैसे पकाऊँगी? खोजते-खोजते चावल का एक पैकेट मिल ही गया। स्पेन के चावल थे। बड़े-बड़े, काल-काल दाना वाले। व दानं चावल बिल्कुल नहीं लगते थे, काई आर ही अनाज लग रहे थे। इस अनाज को उबालने पर, भात जैसी कोई चीज़ भले ही बन जाए, ठीक भात नहीं बनेगा। मसाले-वसाले हैं? मसाले के नाम पर गोल मिर्च पाउडर और प्रपिका पाउडर! इनसे क्या बनेगा? कुछ भी पकाया नहीं जा सकता। न हल्दी, न जीरा, न धनिया। गरम मसालों का भी नाम-गंध नहीं। लहसुन तो मिल गया, मगर प्याज नहीं मिला।
चूल्हा कैसे जलाया जाता है, मैं नहीं जानती थी। बहरहाल, पुलिस की मदद से चूल्हा जलाया गया। अब खाना पकाऊँ किसमें? किचन में लगे हए सारे केविनंट के सारे पल्ले खोलकर हँड़िया-पतीली खोजती रही। चम्मच कहाँ है, थाली-कटोरी कहाँ है? पुलिस ने एक पल में सारा कुछ ढूंढ़ निकाला। लिलियाना की किचन तो पुलिस नहीं पहचानती थी, फिर वे लोग कैसे जान गए कि कहाँ क्या है? वह तो बहुत वाद में इस रहस्य का भंडाफोड़ हुआ। किचन की किस दराज में कौन-सी चीज़ रखी जाती है, केविनेट के किस ताखे पर कौन-सी चीज़ होती है। यह व्यवस्था वहाँ के सभी घरों में एक जैसी होती है। मुझे खाना पकाने की आदत नहीं थी। मैंने वमश्किल खाना पकाया। घर में खाना पकाया जाए और मैं अकेली-अकेली गप कर जाऊँ, इसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। मैं सभी पुलिस वालों को दावत दे आयी। पुलिस वाले एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। उन लोगों को इसकी आदत नहीं थी। कोई भी अहम हस्ती या सुपरस्टार, जिसकी निगरानी के लिए वे लोग तैनात होते थे, कभी इस तरह उन लोगों को दावत नहीं देते। यह उनके नियम में नहीं था। पुलिस वाले तो रूखा-सूखा खाना खाकर ही गुज़ारा करते हैं। रोटी, मक्खन, पनीर वगैरह! मुझे उन पर वेहद तरस आया! मेरी पूर्व-वंगीय अंतरंगता देखकर पुलिस वालों को राजी होना ही पड़ा। खाना खाने के बाद सुयेन नामक एक पुलिस कर्मचारी बर्तन माँजने बैठ गया।
मैं हाय-हाय कर उठी और लपककर उसके करीव पहुँची, “यह तुम क्या कर रहे हो? रख दो। छोड़ो! तुम मेरे मेहमान हो।"
पुलिस कर्मचारी अवाक्!
पुलिस वाले ने कहा, “चूँकि आपने खाना पकाया, इसलिए हम लोग वर्तन धोएँगे। मेहमाननवाजी के लिए धन्यवाद!"
लेकिन चूँकि वे मेहमान थे, इसलिए वे लोग टाँग पर टाँग चढ़ाए बैठे रहें और जिसने खाना पकाया, वही वर्तन भी माँजे-धोए। यह नहीं हो सकता। तब तो अतिथि का आचरण, निहायत बर्बर आचरण माना जाएगा। धीरे-धीरे सयेन ने ही मझे बताया कि अपने घर में भी, वह और उसकी बीवी, मिलजुलकर रसोई में काम करते हैं। आज का खाना, एक जन पकाता है। अगले दिन, दूसरा!
बर्तन माँजकर उसे तौलिए से पोंछ-पोंछकर सजाते हुए, सुयेन अपने बारे में वताता रहा! मेरे अनगिनत सवालों के जवाब देता रहा। मुझे यह जानकर वेहद भला लगा कि इस देश में मर्द, वे सभी काम करते हैं, जिन्हें औरतों का काम समझा जाता हैं ! घर का सारा काम-काज, औरत-मर्द मिलजुलकर करते हैं। रसोई में काम करना, यहाँ के मर्दो के लिए बेहद स्वाभाविक और रोजमर्रा का काम है! मेरी पूर्वदेशीय निगाहों में यह बेहद अचरज की वात थी, क्योंकि अपने देश में घर के मर्दो को रसोई के काम करते, खाना पकाते या थाली-वर्तन माँजते-धोते या कपड़े धोते मैंने कभी नहीं देखा। अगर अचानक कोई कभी कुछ करता भी था, तो वह अपना शौक पूरा करने के लिए या मज़ा लेने के लिए करता था। मैंने सोचा था कि खा-पीकर पुलिस वाले उठ जाएँगे, जैसा कि आम मर्द करते हैं। मैंने तो यह भी सोच लिया था कि अब सारे बर्तन-भाँड़े मुझे ही सजाने होंगे, लेकिन नहीं, ऐसा नहीं हुआ! भई
संस्कृति भी तो कोई चीज़ होती है! मैंने उन लोगों को दोपहर का खाना खिलाया था।
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