जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
अपनी जिंदगी में वर्णवादियों के क्रोध की शिकार मुझे सबसे कम होना पड़ा है, लेकिन काली, बादामी, पीली, जो भी पश्चिमी यूरोप में आ बसी हैं, वे लोग कदम-कदम पर उन वर्णवादियों के जुल्म की शिकार हैं। सिर्फ पश्चिम की ही बात क्या करूँ, कम्युनिज्म के पतन के बाद, पूर्वी यूरोप में भी वर्णवाद, आग की तरह फैलता जा रहा है। पश्चिमी लोगों का कहना है कि यह वर्णवाद तभी बढ़ता है, जब देश की आर्थिक स्थिति खराव होती है। तभी बेकारी बढ़ती है और श्रमिक वर्ग किसी भी विदेशी को देखते ही फुफकार उठता है। साले, हम नौकरी के लिए तरसते रहते हैं और तुम लोगों को फट् नौकरी मिल जाती है और बाकायदा गाड़ी हाँकने लगते हो! चलो जी, पकड़ो उसे! बस, वे लोग दौड़कर खप् से उसे पकड़ लेते हैं। अब आदमी का जीना-मरना उन लोगों के हाथों में होता है!
अगर यह बेकारी कम हो जाए तो वर्णवाद भी कम हो जाएगा-ऐसा पश्चिमी बुद्धिवादियों का दावा है। मुझे शक होता है। नफरत जब एक बार जन्म ले लेती है तो वह आसानी से नहीं जाती। नौकरी हो जाए, धन-दौलत हो जाए, तो नफरत दिल से मिट जाएगी, यह तो कोई तर्क नहीं है। रुपए-पैसे किसी-किसी को उदार बना देते हैं मगर सबको नहीं, बल्कि और ज्यादा तंगदिल, और-और लोभी, और अमानुष बना देते हैं। बड़े-बड़े दफ्तरों और अदालत के लोग वर्णवाद को श्रमिकों की समस्या बताकर अपने को इससे अलग रखने की कोशिश करते हैं। जैसे वे लोग निहायत भलेमानस हैं! लेकिन वे लोग भी जानते हैं कि यह छोटे लोगों की समस्या नहीं है, बल्कि बड़े लोगों द्वारा तैयार की गई समस्या है। बाहर से देखकर, यही लगता है कि सब कुछ बेहद सुंदर, बेहद आकर्षक है। कहीं, कोई वर्णवादी नहीं है। निओ-नाजी लोगों को देखते ही पहचान लिया जाता है कि वे लोग वर्णवादी हैं, लेकिन नए-नाजी कोई समस्या नहीं हैं। सबसे बड़ी समस्या उन लोगों को लेकर है, जो पहचान में नहीं आते, जिनके अंदर गुप्त वर्णवाद पलता है। जो लोग रुई-कतला मछली की तरह हैं, जो लोग चाबी-काठी घुमाते हैं, जो लोग देश के सिरमौर हैं, जो लोग ब्लू-प्रिंट तैयार करते हैं।
भूमंडलीकरण में क्या हुआ? इस देश का आलू उस देश में जाएगा। उस देश का परवल, इस देश में आएगा, लेकिन इस देश के लोग, उस देश में नहीं जा सकते। जो लोग सैर के लिए जाना चाहते हैं, उनमें से किसी-किसी को कड़े परीक्षण-निरीक्षण के बाद जाने की अनुमति दे देते हैं। यह सच है, लेकिन अगर कोई काम-काज के लिए जाना चाहते हैं, वहाँ रहना चाहते हैं तो दरवाजा वंद! भूमंडलीकरण तो सिर्फ सामग्रियों का विश्वायन है। जिन लोगों के पास ज्यादा सामग्रियाँ हैं, उन्हीं लोगों के लिए ही यह नियम बनाया गया है, लेकिन यह दुनिया क्या किसी अकेले की है? इंसान हमेशा से ही, जीविका की उम्मीद में उन्नततर जीवन जीने की आस में, हमेशा से ही एक जगह से दूसरी जगह आता-जाता रहा है।
हर इंसान के जीने के लिए यह चिरकालिक प्रक्रिया है! वर्णवादी और श्रेणीवादी नीति, इस प्रक्रिया को बंद किए दे रहा है। दुनिया में कहीं एकड़-एकड़ जमीन खाली पड़ी हुई है, वहाँ इंसान नहीं है; कहीं बित्ता-भर जमीन पर हज़ारों लोगों की भीड़! जबकि सभी लोग इस धरती की ही संतान हैं। सबमें धरती की संपदा का सही बँटवारा होना चाहिए, लेकिन नहीं, हमारे मालिक-मुख्तारों ने यह नियम बनाया है कि कोई ऐश करेगा, कोई दर्द झेलेगा। किसी के पास अथाह धन होगा, किसी के पास कुछ नहीं होगा। मानवाधिकार-रक्षा का अगुआ सजने के लिए, कभी-कभी इस देश का दरवाजा खोल दिया गया था। राजनैतिक आश्रय के प्रार्थियों को क्षमा या घृणावश, उन लोगों को रहने दिया गया, लेकिन उन लोगों को उछाल-उछालकर वस्ती में फेंक दिया गया। अस्वस्थ परिवेश में बसा दिया गया। जो गू-मूत, श्वेत चमड़ी वाले नहीं फेंकेंगे, वह अश्वेत लोग फेंकेंगे। अधिकांश अश्वेत लोगों का यही काम है! आजकल उँगलियों पर गिने जाने लायक लोग ही ऊपरी पद पर नजर आते हैं। अफसोस! उन लोगों में से अधिकांश उतनी-सी ही तरक्की में, अपने हित-अहित का ख्याल गॅवाकर अपनी आँखें, रंगों के मामले में अंधी कर लेते हैं, जिसे कहते हैं, 'कलर-ब्लाइंड' और भ्रमवश अपनी त्वचा के रंग को भी श्वेत समझने लगते हैं।
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ