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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मेरी निगाहें पश्चिम की खूबसूरती पर ही जाती थीं, लेकिन जब कुत्सित की तरफ मेरी नजर पड़ी, तो उससे भी ज्यादा कुत्सित और अँधेरों की तरफ भी बरबस ही मेरी आँखें जा पड़ीं। वैसे अ-सुंदर हर जगह ही मौजूद हैं, लेकिन सत्तासीन शक्तिमान लोगों में कुछ 'असुंदर' दिखे, तो मन ज्यादा आशंकित हो आता है, क्योंकि अगर वे लोग चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं। अगर वे चाहें तो समूची मानव जाति को भूखा मार सकते हैं। अगर वे चाहें तो बम मारकर समूची दुनिया को उड़ा सकते हैं। अगर वे लोग चाहें तो जहाँ मुझे एक इंच काटन की जरूरत पड़ती है या जरूरत पड़ती ही नहीं, वहाँ वे लोग पूरी बारह इंच काटकर अलग कर सकते हैं और जिस सुई-डोरे से गाय या टाट की बोरी की सिलाई की जाती है, उसी से वह बारह इंच कटा हुआ, मेरा जख्म भी सी सकते हैं। हालाँकि मैं जर्मनी की एक मशहूर स्कॉलरशिप प्राप्त लेखिका हूँ, अस्पताल के बड़े-छोटे डॉक्टर-नर्स जानते हैं कि मैं कौन हूँ, हाँ, मैं ब-हो-त बड़ी हूँ, देश-देश में मुझे देखकर भीड़ उमड़ पड़ती है; ऑटोग्राफ की भीड़, मेरे लिए लाल गलीचा विछाया जाता है, फूल के गुलदस्ते भेंट किए जाते हैं-भले ही कुछ भी हो, लेकिन मैं तो जानती हूँ कि मैं गोरी-चमड़ी नहीं हूँ। मैं काली हूँ। काली-कलूटी! बाद में मुझे पता चला कि मेरे ब्लाडर में डाइवर्टिकुलम दिखाकर, जो ऑपरेशन किया गया, उसकी विल्कुल जरूरत नहीं थी, लेकिन फिर भी जरूरत शायद इसलिए हुई, क्योंकि मैं काली हूँ। काले रंग वाली पर अगर कोई अन्याय हो, काले पर परीक्षण-निरीक्षण किया जाए, कोई प्रतिवाद नहीं करता। काले को काटकर भी रुपए कमाने में सुख मिलता है, भले वह कुत्सित सुख ही क्यों न हो! सुख तो है!

इन पश्चिम के देशों में जिस रफ्तार से मानवाधिकार का उल्लंघन किया जाता है, जिस ढंग से इंसानों पर अत्याचार बरसाए जाते हैं, जिस तरीके से बाहर से आए हुए लोग या विदेशियों के प्रति भय और सुप्त घृणा, नग्न रूप से प्रकाशित है, इस देश में वास किए बिना, यह समझना संभव नहीं है। मेरे लिए भी यह समझना संभव नहीं होता, अगर मैं प्रासाद की सीढ़ियों से उतरकर नीचे नहीं आती, खाली पाँव चलकर आँगन में न आ खड़ी होती।

पश्चिमी लोग हमेशा से ही अपने को उन्नत जाति समझते आए हैं। आज भी अपने को उन्नत समझते हैं। वैसे ऊपर-ऊपर से वे लोग यही कहते, लिखते या सोचते हैं मगर अंदर-अंदर अपने को ऊँचा ही समझते हैं। मैं इत्मीनान से यह इल्ज़ाम उन लोगों को देती हूँ, लेकिन यह दोष मैं अपने सबको नहीं देती। काले या वादामी लोग क्या खुद भी गोरों को उन्नत जात नहीं समझते? मैं खुद भी तो वर्णवादी हूँ। मझे खद भी तो यही लगता है कि विज्ञान, तकनीक, कला, वाणिज्य, गणतंत्र, समाजतंत्र, नीति-रीति-हर दृष्टि से, एशिया, अफ्रीका के मुकाबले, यूरोप काफी आगे है। यह जरूर इसलिए कि हमारी तुलना में यूरोप के लोग काफी-काफी आगे हैं। जंग से ध्वस्त जर्मनी में, इंसान के पास कुछ भी नहीं रहा। सड़कों पर उसने हाँफते-काँपते दम तोड़ दिया। वही जर्मनी कुल पचास वर्षों में यूरोप का सबसे अमीर देश कैसे हो गया? आज़ादी के पचास वर्षों बाद भारतीय उपमहादेश का क्या हाल है! सौ वर्ष पहले तक स्वीडन के लोग बर्च पेड़ की छाल खाकर जीते थे, इतना अभाव था, लेकिन इन सौ वर्षों में स्वीडन दुनिया का अन्यतम धनी देश बन गया। इसके पीछे क्या कोई वजह नहीं है? नहीं, जादू-बल से कुछ नहीं हुआ। इसके पीछे जरूर उन्नत दिमाग था-यह सब क्या बेहद गुप्त ढंग से मैं या हम क्या नहीं सोचते? हम सब ऐसा सोचते हैं, तभी तो उन लोगों का सम्मान करते हैं। ऐसा सोचते हैं, तभी तो उन्हें 'प्रभु' बुलाते हैं, अभी भी! मेरा यही ख्याल डार्विनवाद के पक्ष में जाता है। मुझे पक्का विश्वास है कि मेरी ही तरह और भी ढेरों अश्वेत लोग, गुप्त रूप से या खुले तौर पर सामाजिक डार्विनवाद में विश्वास करते हैं। तीसरी दुनिया के लोग हमेशा से ही अपनी तमाम समस्या, सब कुछ की जिम्मेदारी औपनिवेशिक ताकत पर लादने की कोशिश करना चाहते हैं, मानो अपने लोगों की कहीं, कोई गलती नहीं थी। मानो अपने लोगों का दिमाग बखूवी काम कर रहा है। यह वात क्या सिर्फ गोरे ही कहते हैं, अश्वेत लोग नहीं कहते?

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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