जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
दूसरा पक्ष खामोश!
"तो क्या तुम लोगों का ख्याल है कि पश्चिम की निगाहों के मुकाबले पूर्व की निगाहें कुछ धुंधली हैं? पश्चिम के दिमाग के मुकाबले पूर्व का दिमाग जरा अधकचरा है?"
"ना! ना! यह तुम कैसी बातें करती हो?"
हालाँकि उन लोगों का कहना है कि उन लोगों के मन में ऐसा कोई विश्वास नहीं है मगर मुझे पक्का विश्वास है कि वे यही विश्वास करती हैं। सुप्त वर्णवादियों को देखकर मैं बेहद विभ्रांत हो जाती हूँ। वे लोग मेरी पीठ ठोंकती हैं, वाहवाही देती हैं। मेरी शिक्षा काश देखकर, संस्कृति का स देखकर, वे लोग मारे खुशी के तालियाँ बजाने लगती हैं। तालियाँ बजाते-बजाते बिल्कुल उसी तरह की मुद्रा बनाती हैं, जैसे वे लोग बच्चे की जुबान से पहली बार वोल फूटते हुए देख रही हों या किसी अपाहिज को बड़ी तकलीफ से लाठी या दीवार के सहारे खड़ा होते हुए देख रही हों! तालियाँ बजाते हुए, उन लोगों की आँखें हमेशा नीचे झुकी हुई होती हैं। जो लोग तालियाँ बजा रहे हैं, वे लोग ऊँचे तबके के होते हैं, जिनके लिए तालियाँ बजाई जाती हैं, वे लोग निम्न वर्ग, निम्न वित्त, निम्न श्रेणी, निम्न बुद्धि, निम्न दिमाग के होते हैं। वे लोग जो-सो होते हैं।
पश्चिम की औरतें भी निर्यातित हैं-यह वाक्य या यह सच्चाई, किसी पूरब की औरत की जुबानी सुनना, उन लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं है। हाँ, पश्चिमी औरतों की जुबानी, यह सब सुनना, उन्हें जरूर पसंद है। इसकी वजह यह नहीं है कि पश्चिमी औरतें परिस्थिति-संबंधी बयान, पूरब की औरतों से बेहतर दे सकती हैं। इसकी वजह यह है कि पूरब की औरतों की जुबानी पश्चिमी औरतों के बारे में कोई भी मंतव्य, बेहद अतिशयता लगती है। पूरब की औरतों का यह दुस्साहस, पश्चिम की औरतों को कतई बर्दाश्त नहीं होता। ओ, नौकरानी अगर मालकिन को धमकाए, डाँटे-डपटे तो क्या शोभा देता है? पूरब की औरतें, पहले अपनी समस्याएँ तो सँभाले, उसके बाद, कोई और बात करें।
नहीं, सभी नारीवादी ऐसी नहीं हैं। ऐसी भी बहुत-सी औरतें हैं, जिनकी मौजूदगी में अगर मैं सिर्फ पूर्व की समस्याओं का जिक्र करने के बाद अपना वक्तव्य समाप्त कर देती हूँ, तो ये लोग कह उठती हैं कि पश्चिम में भी तो यही होता है कि तुममें और हममें कोई फर्क नहीं है। पूर्व-पश्चिमी इलाके में भी खास कोई फर्क नहीं है। नारी-निर्यातन के मामले में सब एक हैं। बहरहाल जो लोग भी चाहे जो कहें, मैं किसी भी वर्णवादी या कट्टरवादी की परवाह नहीं करती। जो सच्चाई है, हमेशा वही कहती आई हूँ, आज भी वही कहती हूँ कि और पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण में निर्यातन हैं। औरत घर के अंदर भी शोषण का शिकार है और घर के बाहर भी!
औरत जुल्म का निशाना है, उसके वाल चाहे काले हों या सुनहले, उसकी आँखें, चाहे वादामी हों या नीली। वह धर्म द्वारा नियंतित हैं, अधर्म द्वारा भी! वह चाहे विश्वासी हो या अविश्वासी, वह नियंतित है! वह वेईमान हो या ईमानदार, निर्यातित है। वह लंगड़ी या लूली, निर्यातित है! वह अँधी हो या बहरी, स्वस्थ हो या अस्वस्थ-निर्यातित है! औरत धनी हो या दरिद्र-निर्यातित! वह शिक्षित हो या अशिक्षित-निर्यातित है! वह शिशु हो या बालिका, युवती हो या बूढ़ी, नियातित है। वह आवृत्त हो या अनावृत्त, वह नियंतित ही है! वह मुखरा है या गूंगी, निर्यातित! साहसी हो या डरपोक, निर्यातन ही उसकी तकदीर है।
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