जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैं तो यहाँ कोई नौकरी-चाकरी करती नहीं। मेरे तजुर्बे और तरह के हैं। वे तजुर्वे विविध हैं। विभिन्न संगठनों-संस्थानों द्वारा मुझे आमंत्रित किया जाता है, लेकिन काफी सारे नारीवादी संगठनों के आचरण देखकर मैं अचंभित हुए बिना नहीं रह सकी!
एक वार एक सेमिनार में मुझे हिदायत दी गई कि मैं बांग्लादेश की लड़कियों-औरतों की स्थिति के बारे में ही बोलूँ।
"क्यों? बांग्लादेश की औरतों की स्थिति के बारे में ही मुझे क्यों बोलना होगा?"
"उन लोगों के बारे में तुम्हें बखूबी जानकारी है, इसलिए!"
"सो तो सच है। उन औरतों की हालत मैं बखूबी जानती हूँ। लेकिन इतने दिनों पश्चिम में रहकर मैंने यहाँ की औरतों के बारे में भी थोड़ा-बहुत तजुर्बा किया है, उस बारे में भी क्यों न बोलूँ?"
"क्योंकि तमने काफी कम-सा देखा है।"
“यहाँ मुझे रहते हुए दो-एक वर्ष हो गए, फिर भी तुम लोगों का कहना है कि मैंने कम देखा है? तुम लोग तो एशिया, अफ्रीका का कुल हफ्ता-भर चक्कर लगाकर आती हो और वाकायदा भारी-भरकम किताब लिख मारती हो। सिर्फ इतना ही नहीं, सीने पर 'विशारद' का टैग लगाकर, बाकी जिंदगी आराम से गुजारती हो। बांग्लादेश या बेनिने या इराक या यूथोपिया में कोई विपर्यय घटता है। तो उन्हीं गोरी चमड़ी विशारदों को बुलाकर यह पूछा जाता है कि अब क्या हो सकता है। अब क्या आशंका है, क्या संभावना है।"
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