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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


माइब्रिट ने जवाब दिया, "भई, जरा 'थ्रिल' के लिए किया! उत्तेजना के लिए! उम्र हो जाने के बाद आदमी यहाँ अकेला हो जाता है। जीवन में कोई उत्तेजना नहीं रह जाती। इसीलिए अथाह दौलत होने के बावजूद दुकानों से छोटी-मोटी चीजें चुराकर वे लोग सोचते हैं कि कोई बड़ा उत्तेजक काम कर गुजरें और मन-ही-मन तृप्त हो लेते हैं।"

यह जवाब सुनकर मैं चुप हो गई। मन-ही-मन अचानक दहशत से भर उठी। ये लोग बर्फ-सी सर्द जिंदगी लिए अकेले पड़े रहते हैं और किसी समय आत्महत्या भी कर लेते हैं। इसके बावजूद ये लोग कभी कबूल नहीं करेंगे कि इन्हें किसी तरह का अभाव है या जीवन में कोई समस्या है। सभी लोग सखी हैं! मजे में हैं! सभी के मन में खुशी है। ये लोग अपनी दुःख-तकलीफ किसी से नहीं कहते। यह नियम नहीं है। किसी के सामने छोटा दिखना असंभव है। दूसरों के सामने अपने को विल्कुल 'परफेक्ट' दिखाना है! दिखाते भी हैं! बहुत ज्यादा दिखावा करते हैं ये लोग!

मेरी मनःस्थिति यह है कि किसी महँगी दुकान में दाखिल होने में मुझे डर लगता है। नामी-गिरामी दुकानों में गोरे जाते हैं। एशिया का कोई बंदा उन दुकानों में दाखिल होता है, तो वह है जापानी! मुझ जैसी ऐसी दुकानों के अंदर जाती है, तो इसका मतलब होता है, मैं कुछ खरीदूंगी नहीं। मैं यूँ ही बस देखने आई हूँ, या कुछ हथियाने आई हूँ। मुझे देखते ही कोई दुकानदार झुंझलाई निगाहों से देखते हुए आगे बढ़कर रूखे लहजे में यह जानना चाहता है कि वह मेरी क्या मदद कर सकता है। अगर मैं यह कहती हूँ कि मुझे उसकी मदद की जरूरत नहीं है, मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है, तब वह और ज्यादा मेरे पीछे-पीछे चल पड़ता है। ऐसे में खरीदना चाहकर भी कुछ खरीदने का मन नहीं होता। तब मैं दुकान से निकल आती हूँ और उन्हें चैन की साँस लेने का मौका देती हूँ। जब मैं सामान वगैरह देख-दाखकर भलेमानस की तरह बाहर निकल आती हूँ तो दुकानदार सोचते हैं कि इस बार मुझे मौका नहीं मिला। अव अगली बार जरूर मौका तलाश करूँगी, लेकिन जब मैं काफी महँगे-महँगे सामान खरीद डालती हूँ। तो उनका झुंझलाया हुआ चेहरा धीरे-धीरे स्वाभाविक ही नहीं, अस्वाभाविक खुशी से झलक उठता है। वे लोग इस ख्याल से जरा भी शर्मिंदा नहीं होते कि अभी कुछेक पल पहले ही मुझे चोर समझ रहे थे। मानो वर्ण देखकर, चरित्र के बारे में राय कायम करने का हर अधिकार उनके पास है। यह उन लोगों का जातीय अधिकार है। यह तस्वीर सिर्फ स्वीडन की ही नहीं है, यूरोप के सभी देशों की यही तस्वीर है। खैर यह तस्वीर, उस तस्वीर की तुलना में कुछ भी नहीं है, जहाँ मैं देखती हूँ कि काले-बादामी लोग शारीरिक निर्यातन झेल रहे हैं, क्योंकि उनका गुनाह यह है कि वे लोग गोरी चमड़ी नहीं हैं।

बर्लिन में जब चंद बंगाली लोगों से परिचय हुआ, बातों-ही-बातों में उन लोगों ने बताया कि रात के वक्त वे लोग मेट्रो में सवार नहीं होते।

“क्यों?” मैंने पूछा।

“सिर-घुटाए लोग, भारी-भारी बूटधारी, नए नाज़ी मार देंगे।"

"क्यों? मार क्यों देंगे?"

"इसलिए कि हम काले हैं! अनार्य हैं! हम इस देश में रह रहे हैं, जबकि यह देश हमारा नहीं है। यह उन लोगों का देश है। हम उन लोगों की नौकरी-चाकरी छीन-झपटकर ऐश से रहते हैं। हम जैसे भिखमंगे विदेशियों की वजह से उन लोगों के रुपए अपनी जेब में भर रहे हैं। हमें देखते ही वे चीख-चीखकर शोर मचाते हैं-एइ सूअर, ओ कुत्ते, जा अपने देश लौट जा। जब वे देखते हैं कि मेट्रो स्टेशन पर ज्यादा लोग नहीं है, जगह निर्जन है, तब वे लोग हम पर टूट पड़ते हैं। हाथ में अगर कछ नहीं है तो खाली हाथ ही मारने-पीटने लगेंगे। उन लोगों के पास अगर छुरा हुआ तो एकदम से छुरा चला दंगे। पास में अगर पिस्तौल हुई तो सीधे गोली मार देंगे।"

"ऐसा हादसा होने पर, उन पर मुकदमा नहीं चलाया जाता?"

"जो लोग न्याय की कुर्सी पर बैठे हैं, वे लोग क्या वर्णवादी नहीं हैं?"

मारे आंशका के मेरा गला सूख आया। कट्टरवादियों के हाथों से बचने के लिए नहीं, वर्णवादियों के हाथों से बचने के लिए ही, मुझे अंगरक्षक या सुरक्षा-फौज की जरूरत है। अगले ही पल, यह सोचकर हँस पड़ी कि कनन तो बुखार ठीक कर देती है, यह सच है, लेकिन कुनैन को कौन ठीक करेगा। नए नाजी देखते ही कोई भी पहचान जाता है कि वह नाजी है। ये लोग विदेशी-विरोधी हैं, लेकिन सबसे भयंकर वर्णवाद है-सुप्त वर्णवाद! बाहर से देखकर बिल्कुल समझ में नहीं आता कि किसके दिल में वर्णवाद विराज रहा है। यूरोप में लगभग हर सरकार के अंदर वर्णवादी एक शक्ति मौजूद है, जो देश के दरवाजे बंद किए रखती है, ताकि गरीब देशों के लोग यहाँ आकर. रस-वस जाने का मंसबा न गाँठें और अगर वे यहाँ रह जाने की कोशिश करें, तो उन लोगों को गर्दनिया देकर निकाला जा सके। सूक्ष्म वर्णवाद बेहद सूक्ष्म तरीके से कभी-कभी झलक उठता है। जो लोग इन देशों में नौकरी-चाकरी या काम-काज करके जिंदा हैं. वे लोग ही अपने तजर्बे बता सकते हैं। मानवाधिकार के नाम पर इन गोरों ने काले लोगों को इस देश में रहने दिया है। यह सच है, लेकिन उन लोगों को कोई नौकरी नहीं देंगे। देंगे भी तो कोई अच्छी नौकरी नहीं देंगे।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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