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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


क्रिश्चिनबर्ग में कदम रखते ही मैंने सेकंड हैंड सामानों की दुकान से चंद मामूली असबाब-पत्तर खरीद लिए। दो-एक नए सामान के अलावा, वाकी सारे असबाब पुराने! कुछेक सामान तो बिल्कुल कबाड़ से उठा लिए। यहाँ के अमीर लोग महँगी-महँगी चीजें या मॉडेल पुराना होते ही कबाड़ में फेंक देते हैं। मुझे तो महँगे-महँगे या नए असबाब खरीदने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि मैं इस देश में बस जाने के लिए तो रह नहीं रही हूँ।

मैं तो अपने देश लौट जाने के इंतजार में हूँ। काफी कुछ बस-स्टॉप पर इंतजार करने की तरह! मैं क्यों यहाँ गृहस्थी सजाऊँ! स्वीडन के एपार्टमेंट में तो फ्रिज, ॲवन, दीवार अलमारी, कपड़े धोने की मशीन वगैरह तो मौजूद ही रहते हैं! इसलिए अगर कुछ खरीदना ही है तो कुछेक मेज-कुर्सी और बिस्तर वगैरह खरीदना पड़ा। बहरहाल, घर-द्वार व्यवस्थित करके मैंने अपनी जिंदगी शुरू की। घर के करीब ही मैं एक दुकान में दाखिल हुई! खाने-पीने का कुछ सामान भी तो खरीदना होगा! घर में पकाना-खाना भी तो होगा। मुझे तो यहाँ की भाषा भी नहीं आती। अव साथ में पुलिस भी नहीं है जो अनुवाद कर देगी। फिर भी मैंने उस दुकान में वही-वही चीजें खरीदी, जो मैं पहचानती थी। मुर्गी खाते-खाते मैं ऊब गई हूँ, लेकिन मैं करूँ भी तो क्या करूँ? समुद्री मछली में मुझे गंध आती है! भेड़ के गोश्त, सूअर के गोश्त से भी मझे गंध आती है। गाय के गोश्त का आसमान छता हआ दाम। ऐसे में खाऊँ क्या? यहाँ साग-सब्जी के नाम पर कुछ भी नहीं है। बहरहाल उपलब्ध चीजों में से मुझे अपनी खरीददारी निबटानी पड़ी। मैं जब भी उस दुकान में जाती हूँ। दुकान का एक बंदा, मेरी तरफ तीखी निगाहों से घूर-घूरकर देखता रहता है। अपना काम-काज छोड़कर वह मुझे यूँ घूरता क्यों रहता है? उसकी वह निगाह मेरे अंदर तीर की तरह चुभ जाती है। वह नज़र मेरे तन-बदन में झुरझुरी भर देने वाली बौखलाहट भर देती है। उस दृष्टि में ढेर-ढेर उल्टी-सीधी बातें घुली-मिली होती है। जब मैं उस दुकान में चलती-फिरती हूँ, सामान वगैरह देखती हूँ, एक शख्स मुझे घूर-घूरकर देखता रहता है, जब तक मैं सामानों की कीमत चकाकर बाहर नहीं निकल जाती। मझसे किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन मन-ही-मन मैं खुद समझती हूँ, वह आदमी चौकन्नी निगाहों से मेरी तरफ इसलिए देखता रहता है कि मैंने कोई चीज चुरा तो नहीं ली। वजह? यही कि मैं गरीब देश की लड़की हूँ। जरूर मैं खुद भी दरिद्र हूँ। जरूर मैं अभाव में हूँ! जरूर ही मैं चोर हूँ। यह जो संशय मेरे मन में पैठ गया है, इस संशय की वजह से जव मैं किसी दुकान में जाती हूँ, मैं अपनी पैंट या जैकेट की जेब में हाथ नहीं डालती। जब मैं दुकान में घूमती हूँ, तब भूल से भी कुछ निकालने के लिए अपना हेडबैग नहीं खोलती। चीजें पसंद करते समय, में उन्हें दूर सही देखती हूँ, उनको हाथ नहीं लगाती। जिंदगी में तिल बराबर चीज भी मैंने दाम दिए बिना नहीं खरीदी। ऐसा मेरा स्वभाव ही नहीं है। यह मेरे चरित्र में ही नहीं है। यह सब मेरे दिमाग के किसी भी कोष में, कोप की किसी बूंद में भी नहीं है। फिर भी मुझ पर, मेरे रंग की वजह से शक किया जा रहा है। उल्टे मैंने तो पश्चिम के लोगों को दाम चुकाए विना, चीज लेकर खिसकते हुए देखा है! यूरोप सभ्य महादेश है। अमेरिका की तरह यूरोप के देश अपनी दुकान-पाट के दरवाजों के सामने पहरे नहीं विठाते, लेकिन शरीफ दुकानों में शरीफ लोग घुसते हैं और आराम से चीजें चुराकर खिसक लेते हैं। औरतों के ड्रेसिंगरूम में जाती हूँ, तो देखती हूँ कि नए कपड़ों पर लगाए हुए सील, बटन वगैरह फर्श पर बिखरे पड़े हैं। पूछने पर पता चला, औरतें अंदर कपड़ों की फिटिंग का ट्रॉयल लेने जाती हैं और वहाँ उन कपड़ों की टैग खोलकर, वे पोशाकें या तो पहन लेती हैं या अपने बैग में भर लेती हैं और बिना उनकी कीमत चुकाए इत्मीनान से बाहर निकल जाती हैं। ये सारी करतूतें कौन करता है? गोरी औरतें! सब कुछ यहाँ इस कदर खूबसूरत है। तमाम विषमताएँ मिटाकर समता का समाज तैयार किया है। किसी को, कोई अभाव नहीं है। सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था! सबके लिए रोटी-कपड़ा-मकान! यहाँ तक कि गाड़ी भी, यहाँ सभी लोग अमीर हैं, फिर कोई इंसान चोरी क्यों करे?

“करते हैं! यह भी एक किस्म का मौज-मेला है! ज्यादातर जवान औरत-मर्द करते हैं।"

"सिर्फ मौज-मेला? लोभ क्या कुछ भी नहीं है?"

"हो सकता है! मुझे नहीं पता।"

स्वीडनवासी आपस में स्वीड के बारे में भले नुक्ताचीनी करें मगर बाहरी लोगों के सामने हरगिज नहीं करेंगे। बाहरी आदमी आखिर बाहरी ही होता है। भले ही बारह वर्षों तक संग-संग रहे हों, लेकिन उसे यही लगता है कि वह बाहरी आदमी है। सिर्फ क्या नौजवान औरत-मर्द ऐसा सोचते हैं? मैंने एक बूढ़ी औरत का किस्सा सुना है। उस बूढ़ी के पास अथाह संपत्ति थी। हुआ यह कि एक दिन जब वह सौदा-सुलुफ खरीदने के लिए बाजार गई तो दाम चुकाते हुए एकदम से बेहोश होकर गिर पड़ी। उसकी हैट अलग जा पड़ी और अंदर से एक फ्रोजेन चिकन निकली। उस बुढ़िया ने ढेरों रुपयों के सामान खरीदे थे, लेकिन उसे एक मुर्गी का चूजा चुराने की जरूरत क्यों पड़ गई? मुर्गी की कीमत, खासकर अगर फ्रोजेन मुर्गी हो तो बेहद सस्ती होती है। कुल पाँच-दस रुपयों में ही मिल जाती है। उसके मुकाबले एक खीरे की कीमत ज्यादा होती है। असल में उस बूढी को अंदाजा नहीं था। बर्फ जैसी ठंडी
मुर्गी की वजह से उसका सिर भी बर्फ हो गया और वह वेहोश होकर गिर पड़ी।

"क्यों? उस बूढ़ी को चोरी करने की क्या जरूरत थी? उस बूढ़ी को क्या कोई अभाव था?"

मैंने माइब्रिट से ही सवाल किया।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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