लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मुझे आइसक्रीम देकर और मुझसे पैसे लेकर दकानदार दसरे ग्राहकों की तरफ मुड़ गया। पैदल चलते-चलते मैं सोचती रही-लोगों को मैं पहचानी-पहचानी सी लगूंगी। लेकिन वे लोग यही सोचेंगे कि मैं देखने में तसलीमा जैसी हूँ। यह एक तरह से अच्छा ही हुआ!

लेकिन मोदी की दुकानों में मांस-मछली, आलू-परवल के लंबे-चौड़े बाज़ार में, अगर कोई पहचान लेता है तो भला! लेकिन अगर न पहचाने तो क्या होता है-यह देखने की बात है। उन दिनों, सात दिनों बाद, मुझे लिडिंगों से बाहर जाना पड़ा। वहाँ से निकलकर मैंने शहर में घर किराए पर ले लिया। स्टॉकहोम ऐसी जगह है कि उस शहर में कोई घर या एपार्टमेंट किराए पर लेने के लिए तेरह वर्ष इंतजार करना पड़ता है, लेकिन मुझे इतना लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। विदेश मंत्रालय की मदद से क्रिश्चिनबर्ग में एक बड़ा-सा एपार्टमेंट मिल गया। यह खबर मुझे सूयान्ते ने ही दी। हाँ, वह एपार्टमेंट मुझे फौरन-फौरन नहीं मिला। जब तक उस एपार्टमेंट से पहले वाले किराएदार निकल नहीं जाते। मुझे वह एपार्टमेंट नहीं मिलने वाला था। वे लोग अपना मकान बनवा रहे हैं। जब मकान बन जाएगा। उसके बाद ही जाएँगे न! तव तक यानी वह घर तैयार न होने तक, मुझे एक और फनिश्ड फ्लैट, किराए पर लेना पड़ा। लिलियाना में, एक दोस्त का एपार्टमेंट! वह एपार्टमेंट खाली ही पड़ा था। उस खाली एपार्टमेंट में, मैं कुछ ही दिनों रही। बस इन कुछ ही दिनों के लिए उसने मुझसे आठ हजार क्राउन किराया वसूल कर लिया। कोई-कोई मजनूँ मेरी मुहब्बत में मरा जा रहा है, उसके हाव-भाव से तो यही लगता है। अच्छा, इस शहर में क्या कोई भी ऐसा नहीं है, जो मुझे पैसे न खर्च करने दे और मुझे कुछ दिन अपने घर में रहने दे? या जो रुपए कुर्ट टुखोलस्की पुरस्कार में प्रदान किए गए हैं, सारा खर्च कराए बिना, उन लोगों को चैन नहीं आएगा? सारी दुनिया जानती है कि मैं राष्ट्रीय अतिथि के तौर पर रह रही हूँ। स्वीडन मेरा लालन-पालन कर रहा है। इस देश ने मुझे आदर-आल्हाद, ऐशो-आराम में रखा है। उसने मुझे घर दिया है, गाड़ी दी है। अब मुझे बूंद-भर भी चिंता-फिक्र नहीं है। अब मैं बैठे-बैठे सिर्फ लिदूंगी। वे लोग क्या कभी यह जान पाएँगे कि मैं जिंदगी कैसे गुज़ार रही हूँ! जो लोग मुझे अपने सिर पर बिठाए नाच रहे हैं, वे लोग क्या जानते हैं कि मेरे सामने अनिश्चित भविष्य है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book