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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


जर्मनी के 'डॅयेश्चर अकाडेमिश्चर आउस-टाउस डियनेस्ट' के आमंत्रण पर, जब मैं साल-भर के लिए बर्लिन चली गई, उससे पहले ही स्वीडन की सुरक्षा-फौज ने तय किया कि मेरी सुरक्षा कुछ ढीली कर दी जाए। कह दिया गया कि अब मुझे अकेले चलने-फिरने में कोई असुविधा नहीं है। वैसे इससे पहले मैं अकेली-अकेली आ-जा सकती हूँ या नहीं, अकेले कैसे चला-फिरा जाता है। यह सब वे लोग मुझे दिखा-सिखा देना चाहते हैं। उन लोगों ने पहले मुझे बस पर चढ़ाया। वस में कैसे, क्या करना होता है, इन सबकी भी तालीम दी। कुछ दिन, उन लोगों ने सड़क पर मुझे अकेले-अकेले सड़क पर चलने दिया और दूर-दूर से मुझ पर नज़र रखते रहे। मैं यही तो चाहती थी। तमाम सुरक्षा हटाकर, अपनी भरपूर आजादी के लिए, सड़कों पर अकेले-अकेले चलने देने के लिए, इतने दिनों से मैं बार-बार अर्जी दे रही थी। अपनी आज़ादी ही तो चाहती थी मैं, लेकिन मझे तजर्बा कछ और ही होता रहा। जब मैं रास्ता-घाट पर चलती हूँ या दुकान-पाट के सामने होती हूँ तो राहगीरों के लिए मेरा परिचय होता है-मैं बादामी रंग की लड़की हूँ! मैं किसी दरिद्र देश की लड़की हूँ। आर्थिक सुविधा पाने के लिए, उन्नततर जीवन जीने के लिए, मैं इस देश में आई हूँ। मैंने जरूर इस देश के किसी शख्स की नौकरी छीनी होगी, जरूर मेरा और भी कोई कुमतलब है। खैर, सभी लोग ऐसा नहीं सोचते। बहुत-से लोग दौड़कर मेरा ऑटोग्राफ भी लेने आते हैं। बहुत-से लोग मुझे पहचानते ही मेरा अभिनंदन करते हैं। वे लोग आगे बढ़कर बात करना चाहते हैं।

जब वे झिझकते हुए पूछते हैं, “आप क्या तसलीमा हैं?"

तो सुरक्षा कारणों से, काफी कुछ अपनी आदत के मुताबिक मैं संक्षिप्त-सा जवाब देती हूँ, “ना।"

"आप बिल्कुल तसलीमा जैसी दिखती हैं!" वहुत-से लोग कहते हैं!

"हाँ, मैं जानती हूँ, मेरी सूरत तसलीमा से मिलती है।' यह कहकर, मैं हनहनाते आगे बढ़ जाती हूँ। मेरी मुद्रा ऐसी होती है, मानो मैं तसलीमा नहीं हूँ। एक बार तो ऐसा हआ कि जहाँ नोवेल परस्कार का भोज होता है। उसी सिटी हॉल के करीब मैलारेन लेक के किनारे, आइसक्रीम की दुकान से मैं आइसक्रीम खरीद रही थी।

आइसक्रीम वाला कुछ देर अचरज से मुँह बाए, मेरी तरफ देखता रहा। अगले ही पल उसने पूछा, “आप क्या तसलीमा हैं?"

"हाँ, मैं तसलीमा हूँ।"

उस आदमी ने जोर का ठहाका लगाकर कहा, “आप मजाक कर रही हैं। आप तसलीमा नहीं हैं।"

मैं भी हँस पड़ी, “क्यों? मैं तसलीमा नहीं हो सकती? मैं तसलीमा ही हूँ।"

"सच्ची?"

"सच्ची !"

उस आदमी ने तीखी निगाहों से मुझे परखते हुए, सिर हिलाकर कहा, "नहीं, नहीं, नहीं! आप दिखती, तसलीमा जैसी हैं।"

“यह आपको क्यों लगा कि मैं तसलीमा नहीं हूँ?"

“आप क्या बात करती हैं? आप अगर तसलीमा होतीं, तो आपके साथ ढेरों सुरक्षा-पुलिस होती। उसके साथ पुलिस होती है। वह कभी अकेली नहीं निकलती।"

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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