जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मुझे अंदर ले जाकर कीमती सोफे पर बिठाया। उन्होंने जानना चाहा कि क्या मैं कुछ पीना चाहूँगी? चाय या कॉफी?
“जी, मेरा कुछ भी पीने का मन नहीं है।"
थोड़ा ठहरकर मैंने ही पूछा, "हैरत है! आज अचानक मुझे कमरे में लाकर विठा दिया गया! पिछले दिन तो वीसा देने से इंकार करते हुए मुझे भगा दिया गया था।"
“उसके लिए हमें बेहद अफसोस है! वाकई, बेहद अफसोस है। हम समझ नहीं पाए कि आप तशरीफ लाई हैं। आज ही हमें बेल्जियम के प्रधानमंत्री का खत मिला है। अब वीसा पाने में आपको कोई परेशानी नहीं होगी।"
उन्होंने मुझसे पासपोर्ट लेकर वीसा बनवाकर मेरे हाथ में सौंपते हुए हँसकर कहा, “उम्मीद है, बेल्जियम में आपका वक्त अच्छा गुजरेगा। आपको डॉक्टरेट मिला है, हमारा अभिनंदन! वाकई, यह बहुत बड़ी खुशखबरी है। मुझे पूरी उम्मीद है कि प्रधानमंत्री जी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में आपका वक्त सुखद गुज़रेगा।"
पासपोर्ट लेकर बाहर निकलते-निकलते मैं सोचती रही, इस शख्स का कौन-सा वर्ताव असली है। उसका असली चेहरा वही था, जब उसने मेरी सूरत देखते ही मेरे मुँह पर ही दरवाजा बंद कर दिया था। यह समझने में मुझे जरा भी परेशानी नहीं हुई! उस आदमी की आँखों ने चाहे जितना भी नाटक क्यों न किया हो, उन आँखों में यह विश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ था कि मैं निचले वर्ण की हूँ, निचली जात की हूँ।
जब मैं स्विट्जरलैंड का वीसा लेने गई, उस बार भी मैंने देखा कि दूतावास के राजदूत सीधे मुझे अपने कमरे में लिवा ले गए। मुझे आदर से बिठाया, खातिरदारी की, वीसा बनवाकर सौंप दिया और पैदल-पैदल वे मुझे दरवाजे तक छोड़ने आए। इसकी एक ही वजह थी। स्विट्जरलैंड की सरकार की तरफ से दूतावास को 'तार' भेजा गया है कि मेरा वीसा बना दिया जाए। बहरहाल जिन देशों से सरकारी आमंत्रण आता है, उन देशों के दूतावासों में चलो, ऐसी खातिरदारी हो गई, लेकिन इसके बिना कहीं खैरियत नहीं थी। मझ जैसी तारिका (?) उन सबके नसीब में नहीं जटती। मैं तारिका होऊँ या चाहे जो होऊँ, उत्स तो देखना होगा। अगर कहीं उत्स में कोई गड़बड़ हुई या वर्ण निम्न स्तर का हुआ तो कहा नहीं जा सकता कि किसके देश की पवित्र मिट्टी पर मैं दाँत गड़ा दूं। इसके अलावा पहली दुनिया की मेहरबानी से या हस्तक्षेप से यह लड़की तीसरी दुनिया से यहाँ आ पड़ी है। तारिका बन गई है। अव तीसरी दुनिया की तारिकाएँ, पहली दुनिया में कदम रखते ही, शुरू-शुरू में सावन के अँधे को हरियाली नजर आएँगी ही! इसके बाद पहली दुनिया पेंच जरा कस देगी बस, सब ठीक-ठाक हो जाएगा। तारिका की ख्याति, उतने ही दिनों तक कायम रहती है, जितने दिनों पहली दुनिया उसे देती है।
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