जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
हाँ, सारे नियम उन लोगों ने अपनों के लिए तैयार किए हैं। अच्छे-अच्छे नियम! हम, हम हैं, वे लोग, वे लोग! हम लोग भूमंडलीकरण की बात करेंगे। अपने सामान उन लोगों को बेचेंगे। हम दुनिया भर की सैर करते फिरेंगे, लेकिन उन लोगों को उनकी जगह से नहीं हिलने देंगे। यही हमारा नियम है। फ्रेंच लोग, जन्म से ही अंग्रेजों के दुश्मन रहे। फ्रेंच जब चाहें, अंग्रेजों के देश में आ-जा सकते हैं। उनके लिए किसी वीसा की जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन जिस महादेश पर, अंग्रेज लोगों ने दो सौ वर्षों तक शासन किया, लूट-पाट मचाकर, उन लोगों का सर्वनाश कर डाला, उस महादेश के लोगों के लिए, अंग्रेज देश में जाने के लिए वीसा जरूरी है। क्यों जरूरी है? इसलिए कि वे लोग गरीब हैं। वे लोग उनके देश में शायद बस ही जाएँ। तुम लोगों को क्या वीसा की जरूरत पड़ी थी। जब भारतवर्ष के तट पर अपनी नाव भिड़ाई थी? नहीं! जरूरत नहीं पड़ी। वे लोग तो काले-कलूटे नपुंसक थे। वे लोग तो उनके देश को धन्य-धान्य करने गए थे। खैर, यह सब बेहद पुरानी बातें हैं, लेकिन अभी भी वे लोग क्या वही मनोभाव नहीं रखते? अपने को ऊँचा समझना और अफ्रीका, एशिया के काले लोगों को नीचा समझना? हाँ, यह मनोभाव आज भी मौजूद है। मैं उन लोगों की आँखों की भाषा साफ-साफ समझ सकती हूँ। जब वे तमाम आँखें मेरे सामने आती हैं, मुझे जो समझाती हैं, उनमें साफ-साफ लिखा होता है कि मुझे क्या-क्या दिखाना जरूरी है!
“देखो, भइया, हम आपके देश में रसने-बसने के लिए नहीं आई। हमारे पासपोर्ट में स्वीडन नामक एक अमीर देश में बराबर रहने की इजाजत पर बाकायदा सील-मुहर की छाप मारी रहत है! इसलिए हमका ई देस में ही बहुतै आराम है। ई आराम त्यागकर अपनी के देस में रहे-सहे की बिल्कुल भी इच्छा नाहीं है। जिन लोगन ने हमका न्योता दिहिन हैं। ऊ लोग की बहुत बड़ी संस्था है। ऊ लोगन से पता कर लेवें कि ऊ लोग सच्ची-मुच्ची हम जइसी काली-कलूटी और दलिद्दर को चाहत हैं या नाहीं! अरे, साहेब, ऊ लोग बड़े प्रेम और जोश से हमका चाहते हैं। अइसा बिल्कुल नाहीं है कि हम उन लोगन को चाहते हैं। अरे, हम तो उन लोगन को चीन्हते भी नाहीं। हाँ, ऊ लोग जरूर हमका पहिचानत हैं। समझे, भइया?"
"टिकट कहाँ है?" वापसी की टिकट समेत?
‘पढ़कर वे लोग भेजेंगे, लेकिन जब तक वीसा न मिले, टिकट भेजने से क्या फायदा? टिकट मिल जाने के बाद, अगर कहीं आपकी विचार-बुद्धि यह फैसला करे कि आप लोग मुझे वीसा देने में अक्षम हैं तो बेचारे टिकट का क्या होगा? किस साले का बच्चा टिकट वापस लेगा?"
बहरहाल टिकट चाहिए। बैंक के कागजात चाहिए। बैंक में मेरे कितने रुपए हैं, वे देखेंगे। जितने दिन मैं वहाँ रहूँगी, अपना खर्च चलाने लायक रुपए मेरे पास हैं या नहीं, उन लोगों को जानकारी होनी चाहिए। मेरे चरित्र के बारे में स्वीडन के नागरिक का सर्टिफिकेट चाहिए। हॉलैंड का ठिकाना चाहिए! ठिकाना तो खैर होटल का था ही। उसी होटल का ठिकाना देना होगा। होटल की बुकिंग दिखानी होगी। यह सब सुनकर मेरे तन-बदन में आग लग गई। अनिच्छा से ही सही, मुझे टिकट, बैंक के कागजात वगैरह लेकर, दूतावास दुबारा जाना पड़ा। इतना सब सौंप देने के बावजूद कहा गया कि मेरा इंटरव्यू लिया जाएगा। इंटरव्यू में मनोविशेषज्ञ आकर पहले समझेगा कि मेरे मन में गुप्त इच्छा क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि धनी देश में जाकर वहीं की मिट्टी में जड़ जमाकर बैठ जाने की इच्छा तो मेरे मन में नहीं छिपी है।
बिल्कुल ऐसा तो नहीं, लेकिन काफी कुछ इसी किस्म का दुर्योग, मुझे और-और देशों का वीसा लेते हुए भी हुआ है। बेल्जियम के दूतावास से तो एक बार मुझे भगा ही दिया गया था। मैं गेंट विश्वविद्यालय का आमंत्रण-पत्र भी अपने साथ ले गई थी। मुझे डॉक्टरेट की डिग्री से सम्मानित किया जाना था। उन लोगों ने मेरा पासपोर्ट उलट-पलटकर देखा, उसमें ढेर-ढेर देशों का वीसा लगा हुआ है। यह देखकर भी, चूँकि मेरे पास बांग्लादेश का पासपोर्ट था। मुझसे फट कह दिया गया, वीसा नहीं मिलेगा।
"तो डॉक्टरेट की डिग्री, मैं खुद अपने हाथ में लूँ, क्या यह संभव नहीं होगा?"
"ना!"
उसने झरीदार छोटी-सी खिड़की, फट से मेरे मुँह पर बंद कर दी। ऐसा तो था, उसका बर्ताव! यही बर्ताव दो दिनों बाद, एकबारगी बदल गया। उस खिड़की के पार मुस्कराता हुआ चेहरा! खुश-खुश चेहरा! बस, खिड़की पर उस चेहरे ने ही दरवाज़ा खोल दिया। दरवाजे पर साक्षात् राष्ट्रदूत आ खड़े हुए।
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