जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
हॉलैंड में कदम रखने के पहले पश्चिम के वर्णवाद का ऐसा कुत्सित रूप मैंने नहीं देखा था। पश्चिम में जब कभी मुझे अन्य देश के सफर के लिए जाना होता है, मुझे पासपोर्ट, वीसा की जरूरत होती है, लेकिन यूरोप के धनी देशों में, किसी को भी पासपोर्ट पर यूरोप-अमेरिका जाने के लिए वीसा की जरूरत नहीं पड़ती। यह नियम क्यों? मुझे बताया गया कि यह भूमंडलीकरण का युग है।
मैंने यूरोप के ही चंद बुद्धिजीवी लोगों से सवाल किया था, “आप लोगों के लिए वीसा की जरूरत नहीं, मेरे लिए क्यों?"
मेरे इस सवाल का जवाब उन्हें मालूम था, लेकिन, उन्होंने जरा घुमा-फिराकर कहा, “अलग-अलग देशों का अलग-अलग नियम होता है।"
मैं हँस पड़ी, “या अलग-अलग जाति के लिए अलग-अलग नियम हैं?"
“क्यों? हम लोगों को भी भारत या बांग्लादेश जाने के लिए वीसा की जरूरत पड़ती है।"
"हाँ, सो तो पड़ती है! गरीब देश वीसा के जरिए कुछ रुपए कमा लेते हैं।"
"रुपए वसूलना ही क्या असली उद्देश्य...?"
"भई, गरीब देंश वीसा के जरिए, अगर अमीर देशों से कुछ रुपए अर्जित कर लें, तो नुकसान क्या है?"
"लेकिन युरोप-अमेरिका के धनी देश, गरीब देशों से यूँ मुट्ठी-मुट्ठी भर रुपए क्यों ले रहे हैं? ये देश अमीर लोगों से रुपए नहीं लेते। धनी देशों के लोगों को किसी वीसा की जरूरत नहीं पड़ती। वीसा के लिए आवेदन करते ही रुपए गिनने पड़ते हैं। बहुतों को वीसा नहीं दिया जाता और उनके रुपए भी वापस नहीं देते। गरीब देशों में तो ऐसा होता नहीं! गरीब देशों में, अमीर देशों के घुसने के लिए कोई बाधा नहीं दी जाती।"
उस वक्त उन लोगों का जवाब होता है, "बहुत-से मामलों में रोक भी दिया जाता है।" या वे लोग बातचीत का प्रसंग ही बदल देते थे।
पिछले दो सालों में विलायत की तरफ से कम-से-कम पच्चीस बार आमंत्रण मिला है। बार-बार गई भी हूँ। लंदन थियेटर में कविता पढ़ना, लंदन पेन का आमंत्रण, ब्लैक पूल में समाज तांत्रिक दल का कन्वेंशन, डिलन टॉमस के शहर, सुयेन्सी में सालाना कविता-उत्सव, ऑक्सफोर्ड में व्याख्यान का आमंत्रण, हाउस ऑफ कॉमन्स में भाषण-इस किस्म के विविध कार्यक्रमों में शामिल हुई हूँ। एमनेस्टी इंटरनेशनल की मेहमान के तौर पर समूचे ब्रिटेन की यात्रा भी कर डाली। नॅरिघम, न्यूकैसल, एडिनबरा, बेलफास्ट का सफर भी पूरा किया। नॅरिघम और एडिनबरा विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए कट्टरवादी छात्र-छात्राओं के रोष की भी शिकार हुई। विश्वविद्यालयों में बोलते हए अक्सर यही समस्या उठ खडी होती है। उन विश्वविद्यालयों में विभिन्न देशों के विद्यार्थी पढ़ने आते हैं। मुस्लिम छात्र दल नामक तरुण जंगियों का दल, प्रायः सभी देशों में मिल जाता है। कनाडा जैसे शांत-शिष्ट देश में भी मुझे परेशानी हुई थी। कॅन्कर्डिया विश्वविद्यालय में मेरा भाषण होने वाला था। विज्ञापनों में विश्वविद्यालय के पोस्टर छाए हुए थे। उधर विश्वविद्यालय में जुलूस और सभा! मुस्लिम विद्यार्थियों के जुलूस! वे लोग मुझे कहीं, कोई सभा न करने देने को संकल्पबद्ध ! यह सब सुनकर भी मुझे कोई चिंता-फिक्र नहीं हुई। मैं तो सशस्त्र पुलिस-फौज से घिरी रहती थी। विश्वविद्यालय सुरक्षा-पहरेदारों से पट गया। विश्वविद्यालय के विशाल ऑडिटोरियम में लोगों की पूरी-पूरी खाना-तलाशी के बाद ही अंदर जाने दिया गया, लेकिन इससे क्या होता है? मेरे भाषण के बीच में ही जबर्दस्त शोरगुल, हंगामा शुरू हो गया। पुलिस ने मुझे मंच से उतार लिया और बड़ी फुर्ती से मुझे विश्वविद्यालय के अहाते से बाहर निकाल ले गई। कट्टरवाद जैसे इस्लाम धर्म में है, अन्य धर्मों में भी मौजूद है। मैं इस्लामी कट्टरवाद या इस्लाम की बातें ज्यादा करती हूँ, क्योंकि इसी में मैं पल-बढ़कर बड़ी हुई हूँ। यह सब मैंने अपनी आँखों से देखा है और खुद इसे झेला भी था, लेकिन जब कभी मैं ईसाई धर्म की आलोचना करती हूँ, मैंने देखा है कि इस्लाम धर्म की आलोचना पर तालियाँ बजाने वाले ईसाई लोगों के चेहरे पर चूना पुत जाता है। मैंने उन्हें धीरे-धीरे हॉल छोड़कर जाते हुए देखा है। मैंने हमेशा, सबसे यही कहना चाहा है कि मैं अन्याय का विरोध करती हूँ। मैंने किसी निर्दिष्ट धर्म के खिलाफ युद्ध का ऐलान नहीं किया है। धर्म पर सवाल करने की मुझे कतई जरूरत नहीं पड़ती, अगर मुझे यह नज़र नहीं आता कि नारी-स्वाधीनता में धर्म खास आड़े नहीं आता। सभी धर्म ही औरत की अवमानना करते हैं। यह बात मैंने जोरदार लहजे में कही, अब भी कहती हूँ। इस बात से अगर कोई क्षुब्ध होता है तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर मैं बांग्लादेश से बाहर न निकली होती, अगर पश्चिम से लंबे अर्से तक दिन नहीं गुजारे होते, इस समाज की गहराई में चलना-फिरना नहीं होता तो मुमकिन है कि मुझे ईसाई कट्टरवाद या यहूदी कट्टरवाद के असली चेहरे की जानकारी या पहचान नहीं होती। अगर मैं बाहर न निकली होती, तो पश्चिम के वीभत्स रंग-भेद की जानकारी नहीं होती। अगर मुझ जैसी तारिका का ही यह हाल है तो अश्वेत आम जनता को क्या-क्या सहना पड़ता है, यह सोच-सोचकर मैं सिहर जाती हूँ।
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