लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


अगर रिश्ता न होता, तो ये काले-बादामी लोग, जिन लोगों ने इस देश में राजनैतिक या आर्थिक शरण ली है और इस देश के बाशिंदे बन गए हैं, उन लोगों को रिंकिंग नामक उप नगर में क्यों रहना पड़ता? ये गोरी चमड़ी वाले स्वीड लोग अगर अंदर-ही-अंदर वर्णवादी या जातिवादी न होते तो जरूर ही आस-पास रह-सह सकते थे। इस देश में गंदे या गलत-सलत काम-काज के लिए काले-बादामी लोगों को उतार दिया जाता है। हाँ, अच्छे-अच्छे काम गोरे लोग करेंगे। आदमी पढ़ा-लिखा हो, काबिल हो, लेकिन अगर गोरी चमड़ी न हो तो उसे नौकरी नहीं मिलेगी। अयोग्य होने के बावजूद, नौकरी गोरों को ही मिलेगी। यही चल रहा है, लगातार चल रहा है, जबकि दावा यह किया जाता है कि यह देश मानवाधिकार संरक्षण में दुनिया में अव्वल नंबर पर है! इसके पीछे दो वजहें हैं-या तो भय या सामाजिक डार्विनवाद!

सामाजिक डार्विनवाद! डार्विन के तथ्यों के दुरुपयोग के अलावा और कुछ भी नहीं है। हर्बट स्पेन्सर नामक उन्नीसवीं शताब्दी में एक अंग्रेज दार्शनिक थे। उनका तथाकथित दार्शनिक, धार्मिक, आर्थिक-सामाजिक तत्त्व था-सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट! स्पेन्सर के इस तत्त्व के साथ डार्विन की 'ऑरिजिन ऑफ दि स्पेसिस' तत्त्व को मिलाकर बाजार में छोड़ दिया गया और समचे यरोप ने, केवल यरोप ने ही नहीं, अमेरिका ने भी इसे आगे बढ़कर अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया। उस जमाने के समाज में सामाजिक डार्विनवाद बेहद लोकप्रिय था! उस समाज के उच्च श्रेणी के लोग, तत्त्वविद्, समाजविद्, बुद्धिवादी, राजनीतिज्ञ-सभी लोगों में इसकी चरम जनप्रियता थी। इस बारे में किसी में भी मतभेद नहीं था। किसी ने भी विरोध नहीं किया। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी तक सामाजिक डार्विनवाद की जनप्रियता की फसल है-क्रीतदास प्रथा, उपनिवेशवाद! सिर्फ इतना ही नहीं, सामाजिक डार्विनवाद के जरिए, श्रेणीभेद, जातिभेद और लिंगभेद को भी तर्कसंगत ठहराया गया। में उच्च वर्गीय हूँ, तुम निम्न वर्गीय। इसका मतलब है कि मैं ऊपर उठ सकती हूँ, लेकिन तुम्हें ऊपर उठने का हक नहीं है। मेरे मुकाबले तुममें बुद्धि काफी कम है! तुम्हारे दिमाग के मुकावले मेरा दिमाग उन्नत है। इसीलिए, जीने की योग्यता, तुम्हारे मुकाबले कहीं ज्यादा है मुझमें! निर्वल मर जाता है, सबल जिंदा रहता है या निर्बल सबल के अधीन जीवित होता है, पश्चिम के दार्शनिकों ने इंसानों पर जाति-आधारित, इसी तरकीब का प्रयोग किया था। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के लोग दुर्बल हैं, यूरोप और उत्तर अमेरिका के गोरों की जाति, बेहद सवल होती है। चूंकि वह सवल है, इसलिए, जितनी सारी शिक्षा-दीक्षा है, जितने भी आविष्कार हैं, सब यूरोप-अमेरिका में ही हो रहे हैं। इसीलिए काले, बादामी लोगों को क्रीतदास बनाने या कौशल से इन लोगों की संपत्ति हथियाकर, इन लोगों की नाक में नकेल डालकर घुमाने, पैरों तले कुचलने में, किसी ने कोई आपत्ति नहीं की। इंसान के तौर पर काले और बादामी लोग निम्न मान के हैं! बिल्कुल निम्न किस्म के। यह शिक्षा, पश्चिम के लोगों ने अपने दिमाग के रोम-रोम में, सदियों से पाल रखा है। यह आसानी से नहीं मिटने वाला! समाज में कोई ऊँचे तबके का है, कोई निचले तबके का! इसके पीछे राजनीति काम कर सकती है, चतुर अर्थनीति काम कर सकती है, लेकिन इसमें प्रजाति-भेद क्यों हो? पश्चिम के उच्च श्रेणी के लोग, इस सामाजिक डार्विनवाद में इस कदर डूबे हुए थे कि जाति-जाति के इंसानों के बीच सहयोगिता के बजाय प्रतियोगिता की भावना भर दी। मिलन के बजाय फौज की संख्या बढ़ाते गए, लेकिन डार्विन का विवर्तनवाद यह नहीं कहता। डार्विन के मतानुसार प्रतिकूल परिवेश को अनुकूल करने के लिए और जीवन को सहजतर बनाने के लिए, मनुष्यों के अंदर ही परिवर्तन होता रहता है। जिन लोगों को अनुकूल परिवेश नहीं मिलता, वे जिंदा नहीं रह पाते। इंसानों के संदर्भ में अनुकूल परिवेश के अभाव के कारण प्राकृतिक नहीं है! अभाव का कारण है-इंसान द्वारा रची गई इंसानों की कुत्सित राजनीति!

सन् 1870 में अंग्रेज वैज्ञानिक, मध्य-अफ्रीका के आदिवासी, पिग्मी लोगों को जाल फेंककर, शिकार कर लाए। उन्हें चिडियाखाने में ठंस दिया। ना. उन लोगों ने उन्हें इंसान समझा ही नहीं। हजारों लोग काले रंग के नाटे लोगों को देखने के लिए चिडियाखाने में भीड़ लगाए रहते थे। गोरे, लंबे लोगों की नज़र में वे लोग इंसान नहीं, जंतु समझे जाते थे। आजकल सामाजिक डार्विनवाद के तत्त्व, जनप्रियता के शिखर पर हैं। काले रंग के ये नाटे लोग इंसान हैं, जंतु नहीं। यह समझने में यूरोपीय लोगों को लंबा वक्त लग गया।

यह कहा जाता है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक डार्विनवाद की जनप्रियता खत्म हो चकी है। हहः, ठेंगा खत्म हो चुकी है। सामाजिक शरीर तत्त्व में अनिवार्य रूप से परिवर्तित हो चुका है। हार्ड के मशहूर सामाजिक शरीर-तत्त्व विशारद, एडवर्ड विल्सन ने जो कहा है, वह कुछ यूँ है-“किसी एक चींटी को समझने से कोई फायदा नहीं है, चींटी की पूरी कॉलोनी को समझना होगा। किसी भी व्यक्ति के डी एन ए से कहीं ज्यादा मूल्यवान है, उस व्यक्ति की जो जाति है, उसका डी एन ए!" अगर यह सच है तो किसी भी जाति का कोई एक व्यक्ति अगर अपराध करता है तो उसे सजा देने के लिए समूची जाति को ही सजा देनी होगी। जी हाँ, विल्सन दर्शन के मुताबिक यही होता है। एशिया-अफ्रीका के साथ यूरोप के लोगों में फर्क समझाने के लिए, विल्सन ने काफी छल-चातुरी का आश्रय लिया है। उन्होंने काफी घुमा-फिराकर कहा है कि यूरोप के लोग उन्नतमान के होते हैं। ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी लोग चूँकि कोई सभ्यता नहीं गढ़ पाए। जैसी सभ्यता यूरोपीय लोगों ने गढ़ी है, इसलिए वह आदिवासी जाति बेहद निम्न स्तर की है। भारत का कोई एक भी प्राणी, अगर मोटी अक्ल का है तो समस्त भारत ही अक्लबंदों की जगह है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book