जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इस देश में लोग हर खिड़की पर झंडे लहराते हैं।
जब पहली बार खिड़कियों के झंडों पर नजर पड़ी। मैंने स्वीडिश बुद्धिजीवी लोगों से दरयाफ्त किया था, “आज के दिन तुम लोगों का कौन-सा पर्व है?"
"क्यों, आज के दिन से तुम्हारा क्या मतलब है?"
"आज क्या कोई खास दिन है? कोई राष्ट्रीय-दिवस?"
"नहीं तो!"
"फिर यह घर-घर झंडे?"
"वोऽऽ! बस, ऐसे ही!"
"ऐसे ही का क्या मतलब? बिना किसी कारण ही? कोई पर्व बिना ही?"
"हाँ, झंडे तो पूरे साल-भर यूँ ही लहराते रहते हैं।"
"वे सारे मकान सरकारी या और कुछ हैं?"
"ना! लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति है! अपना निजी घर-मकान!"
इन झंडे उड़ाने वालों को जातीयवादी कहा जाता है। वैसे जातीयतावाद बुरा शब्द है! हिटलर ने अगर विश्वयुद्ध न छेड़ा होता तो जातीयतावाद भले शब्दों की कतार में खड़ा हो सकता था, लेकिन कट्टर जातीयतावादी होते ही, अपनी जाति को कायम रखू, दूसरी-दूसरी जातियों से नफरत करूँ, कुछ इस किस्म का असहिष्णु मन तैयार हो जाता है! जैसा मन हिटलर का था। समूचा यूरोप इसी जातीयतावाद की आग में जल रहा है। अब अंदर-ही-अंदर उसी आग के प्रति पक्षपात भले ही हो, अपने को जातीयतावादी के तौर पर परिचित कराना, राजनैतिक नजरिए से हरगिज सही नहीं है।
“वे लोग क्या अपने को जातीयतावादी कहते हैं? जान-बूझकर?"
"असल में...!"
"असल में क्या?"
"असल में कुछेक निओ-नाजी उस किस्म के झंडे लहराते थे। उन लोगों पर नाराज होकर अब आम लोग भी झंडे लहराने लगे हैं।"
"क्यों? यह जताने के लिए कि वे लोग निओ-नाजी हैं?"
"नहीं! यह जताने के लिए कि झंडा लहराकर हम लोग जातीयतावाद नहीं अपना देश-प्रेम साबित करेंगे!"
"देशप्रेम और जातीयवाद-इन दोनों में फर्क क्या है?"
"फर्क तो जरूर है! बेशक है!" "मझे लगता है, इन दोनों में कोई गहरा रिश्ता भी है।"
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